कहानी- ढाक ढोल
कुशेश्वर महतो
वह चबूतरे पर ढेर हो गया। तरह-तरह की आवाजें गूंज रही थीं। अभी विसर्जन होने में आधा घंटे की देरी थी। ट्रक से मूर्तियों को उतारने में कम से कम उतना समय तो लग ही जाएगा। तब तक के लिए बैठ कर वह अपनी कमर सीधी कर लेना चाहता था। आज वह मुंह-भोर से लगातार ढाक बजा रहा है। दिन में उसने कई बार चाहा कि थोड़ा-सा आराम कर ले, लेकिन क्लब के लड़कों ने ऐसा करने नहीं दिया था। एक झुंड जाता तो दूसरा चला आता और नाचना आए या न आए, बस उछलना-कूदना होना चाहिए था। अब हालत यह थी कि रात के साढ़े बारह बज रहे हैं। सुबह से अब तक की थकान और भूख से वह टूट-सा गया है। उसे ऐसा लग रहा है कि अगर उसने थोड़ा आराम नहीं किया तो उसके हाथ जवाब दे देंगे और फिर तब नींद की झोंक में जाने क्या हो जाए? इसलिए एक दीवार के सहारे वह टिक गया और हाथ-पैर फैला कर अपनी आंखें मूंद ली।
दिन में यदि भरपेट भात मिल गया होता तो इस समय वह अपने को इतना कमजोर महसूस नहीं करता। सुबह में कुल्ला-कलाली करने के बाद ही उसे पान्था-भात खाने की आदत है या फिर थाली भर के मूढ़ी-घुघनी। लेकिन दिन के ग्यारह बजे तक चक्रवर्ती बाबू का अता-पता नहीं चला था। क्लब के किसी और लड़के से बोलता तो वे जवाब देते कि चक्रवर्ती दा ही इंतजाम करेंगे। और जब चक्रवर्ती दादा से भेंट हुई तथा उसने जल-खावार की बात कही तो उन्होंने डांटते हुए कहा था, ‘तूमि एकटा मुर्खो आरे, जे कोनों छेलेर काछे चाहिले ओरा दिए दितों। नाओ, ऐई कुड़ी टाका।’ वह बोल नहीं सका। सब बाजा (माईक्रोफोन) बजाने और अपने को राजा बनाने में मस्त थे। उसकी इच्छा हुई थी कि बीस का नोट वह दादा के मुंह पर दे मारे किंतु प्रत्यक्ष रूप में वह बस इतना ही कह पाया था ‘एई कुड़ी टाका ते तीन जनार जल-खाबार कि करे होबे’? चक्रवर्ती बाबू ने तब उसे कुछ गुस्से से देखा था और एक दस का नोट फिर से हाथ में थमा कर चल दिए थे।
चक्रवर्तीबाबू के जाने के बाद दादा (भैया) ने उसे समझाया था, बड़े शहर में हमेशा ऐसे ही होता है, ये लोग कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। पिछले दस सालों से इस तरह की घटनाओं का सामना करते-करते आदत-सी हो गई है । उस वक्त उसने चाहा था कि दादा से कहे ‘आप अभ्यस्त हो चुके हैं पर मैं अभ्यस्त नहीं हो सकता। आप प्रतिवाद नहीं कर सकते तो क्या मैं भी प्रतिवाद न करूं? पर दादा का ख्याल करके वह ऐसा बोल नहीं पाया था। दादा ने उसे संतोष दिया था कि अभी मूढ़ी से काम चल जाएगा, फिर थोड़ी देर बाद पूजा का भोग तो मिलेगा ही। लेकिन पूजा का भोग उसे कहां मिला था? पूजा-पंडाल के कुछ लड़कों ने दोना भर-भर के भोग अपने-अपने घरों में भिजवाया था और उन्हें पूछा तक नहीं था। उसने यह भी देखा था कि चक्रवर्ती बाबू हंस-हंस कर जवान लड़कियों को अपने हाथों से भोग खिला रहे थे।
कितना अच्छा होता, यदि वह आया नहीं होता। दादा ठीक ही मना कर रहे थे, तू मत जा, अगले साल चलना। अभी तू नासमझ है। तुझे तकलीफ हो जाएगी। वह तब मचल कर बोला था, ‘हुंह, काहेकी तकलीफ? मैं अब बाईस साल का जवान हो चुका हूं। मैं तो जाऊंगा। इस बार तुम ढोल बजाना और मैं ढाक बजाऊंगा। इस बार बाबा को आराम। जानो दादा, कोलकातार पूजो देखते आमार खूब इच्छा करे।’ ‘ना, बाबा ना । तेरा दिमाग हमेशा गरम रहता है। क्या जाने तू कब किससे झगड़ा कर ले, फिर तो मुसीबत हो जारगी ।’ मैं शपथ लेता हूं दादा, मैं किसी से झगड़ा नहीं करूंगा। बाबा , समझाओ न दादा को।
‘जब छोटा इस तरह से जिद्द कर रहा है तो ले जा।’ बाबा की रजामंदी देखकर दादा ढीले पड़ गए थे। बस, वह उछल पड़ा था । उसकी आंखों में महानगर के पूजा-पंडालों की भव्य-सजावट, रंग-बिरंगी चमकती हुई बत्तियां, तरह-तरह की सुंदर मूर्तियां और सड़कों पर बहते जन-समुद्र के सारे दृश्य तैर गये थे, जिसके बारे में भसान (विसर्जन) से लौटने के बाद गांव आकार बताया करते थे। इसीलिए तो कालीघाट पहुंचने से पहले तक उसका हृदय बार-बार रोमांचित हो उठता था ।
पंचमी के दिन दादा, वह और भाई पो (भतीजा) तीनों कालीघाट पहुंचे थे। पहुंचने पर उसने देखा था कि उसके जैसे सैकड़ों ढाक वाले पहले से ही वहां मौजूद थे। एक क्षण को वह उदास हो आया था। गांव से यहां तक पहुंचने में ट्रेन और बस मिलाकर कुल सात घंटे का सफर तय करना पड़ा था। किंतु यहां आकर खुले आकाश के नीचे एक पतली नाली के पास फुटपाथ पर धूप में बैठना पड़ा तो उसके सारे सपने सूखे फूल की तरह झरने लगे थे। ऊपर से उसके पेट में ऐंठन होने लगी थी। उसने दादा से जब मजबूरी बताई तो दादा खीझ पड़े थ। बोले- इसीलिए मैं मना कर रहा था। अब संभालो .. जाओ, सामने देखो, आदि गंगा … वहां जाकर निबट लो।लौट के आने पर उसने देखा, कई ढाकी अपने ढाक-ढोल बजाने लगे थे। दादा भी ढोल बजा रहे थे और भाई-पो घंटा। उसे देखते ही दादा ने उसे ढाक की ओर इशारा किया। उसने बेमन से बजाना शुरू कर दिया।
भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोग आते, उनका बजाना देखते, सुनते और दर तय करते ।तय नहीं होता तो दूसरे की ओर बढ़ जाते। जिनका साटा तय हो जाता, वे चले जाते। उसका साटा अभी तय नहीं हुआ था । उसे बीच-बीच में ढाक बजाते-बजाते उसकी ताल पर नाचना भी पड़ता। दादा इसके लिए जोर देते कि वह अच्छा नाचता है। लोग देखेंगे तो अधिक पैसे पर तय करेंगे। इस तरह नाचने-बजाने से उसे खुशी नहीं हो रही थी। उसे यह एक प्रकार का ऐसा प्रदर्शन लग रहा था, जिसमें बिकाऊपन को सौंपना था। उसने एक बार जिराट मेला में कुछ रंग-बिरंगी औरतों को अजब इशारे करते देखा था। वो तो उसके मास्तोतो (मौसेरे) भाई सुमोन ने उसे बताया था कि ये औरतें वो हैं और …. तो क्या ये सब ….. ? उसका मन वितृष्णा से भर गया था। यह तो अच्छा हुआ कि सांझ होने से पहले ही चक्रवर्ती बाबू का साटा तय हो गया और तीनों उनके साथ चल पड़े थे। रास्ते में दादा ने बताया था- पिछले साल जिस पंडाल में बजा रहे थे उसके करीब ही इनका भी पंडाल था। वो एक बार हम लोगों का बजाना देख गए थे, शायद इसीलिए आज ……. ?
जब पूजा-पंडाल में पहुंचा तो उसे लगा था कि वह गांव वाले खुले आकाश से निकल कर महानगर के पत्थर भरे पूकुर (तालाब) में डूबने चला आया है। चमकती हुई बत्तियां उसे बुझी-बुझी सी लगने लगी थीं। उसके भीतर का उल्लास ठंडा पड़ने लगा था। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि प्रकाश का यह कौन-सा सत्य था जो अंधेरे को ओढ़े हुए था। उसे नींद नहीं आ रही थी। पंडाल के पीछे सोने के लिए जो जगह मिली थी, वैसी जगह पर वह सोने का अभ्यस्त नहीं था। और फिर बीच-बीच में कुछ आवाजें आतीं। पंडाल के पीछे ही एक तने हुए घर नुमा तिरपाल के अंधेरे में क्लब के कई लड़के बैठे शराब पी रहे थे और चंदा उगाहने को लेकर दूसरे दो-तीन लड़कों की आलोचना कर रहे थे। मेघनाथ और बाबलू के नाम कुछ ज्यादा सुनाई दे रहे थे। किस तरह उन लोगों ने घोटाला किया है। हम लोग दस, बीस, पचास करते हैं लेकिन उन लोगों ने…। अभी रात बीती भी नहीं थी कि उसी अंधेरे में शराब पीते उन लड़कों की आवाज के साथ चक्रवर्ती बाबू की आवाज और एक लड़की की सिसकी. छाड़ो छाड़ो..बोलछी। उसके अंदर हुआ था कि तिरपाल हटा के अंधेरे को चीर दे। लेकिन अपने दादा का समझाना यादा आ गया था और उसने अपनी आंखें मूंद ली थीं।
नहीं चाहते हुए भी सुबह में वह दादा पर नाराज हो गया था-‘जहां इस तरह के गंदे काम होते हैं वहां तुम ढाक बजाते ही क्यों हो?’ऐसे में उसे अपने गांव घर की याद आ गई थी। वह प्राय: अपनी मां, भाभी तथा पड़ोस की दूसरी गरीब औरतों और लड़कियों को देखता कि किसी खास अवसर, पूजा-पाठ, शादी-ब्याह में वे कीमती साड़ी, आलता सेंट, पावडर आदि लगाकर, बन-संवर कर निकलती हैं और रास्ते में ऐसे चलती हैं कि देखने वाला यह समझ ही नहीं पाए कि इन्हें किसी चीज का अभाव है। लेकिन यही औरतें घर के अंदर केवल एक गमछी या पुरानी मैली-फटी साड़ी में लिपटी रहती हैं। तो यह है दो रूप का मतलब कि ठाकुर हो चाहे आदमी सामने से जितना सुंदर और सजा हुआ रहता है, पीछे से उतना ही अस्तित्व हीन और कुरूप होता है।
एक बच्चे के रोने की आवाज से उसकी आंखें खुल गई। उसने देखा कि उसकी गर्दन दोनों टांगों के बीच झुकी हुई है। पलकों पर जैसे बर्फ रक्खी हुई हो। फिर भी वह चौकन्ना हो गया। उसे याद आ गया कि चक्रवर्ती बाबू ने उसे सोते हुए देख लिया तो कहेंगे कि वह सुबह से केवल सो रहा है, ढाक तो बजाया ही नहीं? दोपहर में एक बार उन्होंने ऐसा ही कहा था कि ढाक बजाने के साथ-साथ नाचने का भी साटा हुआ था। शायद इसी बहाने वो कुछ रुपए कम कर देना चाहते थे। इसलिए उसने आंखें पूरी तरह से खोल ली और जरा हटकर एक खंभे से टिककर ठीक से बैठ गया। घाट पर भीड़ तो बहुत है। लेकिन पुलिस का भी इंतजाम है। यहां आपा-धापी नहीं हो रही। एक के बाद एक मूर्तियां गाड़ियों से उतारकर विसर्जन के लिए गंगा के किनारे ले जाई जा रही हैं, जहां से नौका पर ले जाकर दूर में भसा रहे हैं। उसके पहले ठाकुर का सारा सरंजाम-तलवार वगैरह उतार कर ले जा रहे हैं। दादा ने बताया था – आजकल ये नया से चालू हुआ है। उसने देखा एक मूर्ति को चकफेरियां देकर छपाक से गंगा में फेंक दिया गया। उसका मन फिर कड़वाहट से भर गया। भला यह भी कोई बात हुई कि जिस माटी की मूरत को सजाया, उसकी पूजा की और फिर यहां छपाक से नदी में फेंक दिया। जैसे इस शहर में सब चाय पी के भांड फेंक देते हैं …. फटाक् ….. ।
अकस्मात उसे लगा कि अगल-बगल के सारे लोग मूर्तियों में बदल गए हैं जो सामने से सुंदर और पीछे से वीभत्स दिखाई दे रहे हैं। सबको पीछे से खपाचियों के जर्जर बांस से टिकाया गया है, ताकि वे किसी तरह खड़े रह सकें। ओह! उसने अपने माथे को झटका गांव जाकर बाबा से पूछेगा कि ऐसा क्यों होता है?
‘कितनी देर से तुम्हें आवाज दे रहा हूं, तुम सुनते ही नहीं। चलो, अपना नंबर आ गया है, ढाक संभालों। जितनी देरी सब तुम्हारे खातिर होती है।’
एक हथौड़ा-सा उसके सिर पर गिरा। आंखें चौड़ी करके उसने चक्रवर्ती बाबू को इस तरह देखा जैसे डंडा ढाक पर नहीं उनके सिर पर दे मारेगा। वह गुस्से से भरा हुआ उठा और बेमतलब ढाक पीटने लगा। दादा ने घबरा कर उसकी ओर देखा। वह लगातार जोर-जोर से ढाक पीटने लगा था। डंडे की हर आवाज पर उसे मां दिखती, भाभी पड़ोस की औरत… वहां के लोग… सभी जैसे मूर्तियों में बदल रहे थे। कोई दुर्गा, कोई लक्ष्मी, कोई सरस्वती, कोई गणेश, कोई कार्तिक। केवल चक्रवर्ती बाबू महिषासुर की तरह नजर आ रहे थे। फिर उसे याद आया कि हर साल महालया की भोर में विरेन्द्र कृष्ण भद्र का चंडी पाठ रेडियो पर सुनने के लिए कितना उतावला हो जाता था। पर महिषासुर तो आज तक नहीं मरा। वह पहले से भी तेज ढाक बजाने लगा। ‘धड़ाम।’ जोर की एक आवाज हुई। सभी ने घूम कर देखा। डंडे का एक सिरा चमड़े को फाड़ कर अंदर प्रवेश कर चुका था। दादा का चेहरा फक्क पड़ गया था। वह लगभग चीखते हुए बोले, ‘इसीलिए आना चाहता था कि सब चौपट कर दे? अब तू ही बता, कल सवेरे प्रणामी के लिए ढाक कहां से लाएंगे? आजकल इतने पैसे भी नहीं मिलते कि झट से चमड़ा चढ़वा लें। ढोल भी पुरानी हो चुकी है।’ दादा ऊपर से उस पर जितना नाराज हो रहे थे, अंदर से वह उतना ही खुश हो रहा था। चलो, अच्छा हुआ। कल प्रणामी मांगने से वह बच जाएगा। भला यह भी कोई बात हुई कि दो-चार रुपए के लिए मोहल्ले में घूम-घूम कर हर दरवाजे पर ढाक बजाए और बाबुओं के सामने भीख मंगों की तरह हाथ फैलाए।’ उसके होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कुराहट उभर आई। उसकी इच्छा हुई कि वह जोर से ठठा कर हंसे जिसकी कड़कती आवाज बादलों में गरजती-चमकती बिजली की भांति दूर-दूर तक फैलती जाए.. फैलती जाय ..।