सृजन की चेतना है साहित्य
रमेश दवे
साहित्य सियासत नहीं, सृजन की चेतना है। न वह मार्क्सवादी या वामपंथी होता है, न दक्षिणपंथी या कलावादी। उसका यथार्थ भी संवेदन है और उसका अमूर्त भी संवेदन। सौंदर्य भी दोनों का अपना-अपना है। हम चाहे शोषित, पीड़ित, अन्यायग्रस्त व्यक्ति या जन का साहित्य रचें या वीभत्स से वीभत्स घटना, परिवेश का, उनकी आंतरिकता में जो संवेदना होती है, पीड़ा की जो अनुभूति होती है, वही तो हमारे अंदर रस उत्पन्न करती है और रस का होना ही सौंदर्य है। वीभत्सता को सौंदर्य बना देने की कला एक साहित्यिक जानता है। इसलिए वह जो रचता है, वह अखबारी न्यूज की तरह सपाट नहीं होता, बल्कि वह तो उसकी कल्पना है, सृजन की चेतना है। शायद इस वीभत्सता के अनुभव से सुप्रसिद्ध नाइजीरियन अफ्रीकी कथाकार चिनुआ अचेबे ने कहा था-‘बदबू ही मेरा सौंदर्यशास्त्र है’ और जो सभ्यता का आत्म-घोषित श्वेत संसार है वह तो कुत्ते के सूखे मल की तरह है।
वर्ष 1885 की औद्योगिक क्रांति ने विचार के दो टुकड़े कर दिए थे और सारी दुनिया को गरीब-अमीर, शोषक-शोषित, सामंत-किसान, पूंजीपति-मजदूर आदि वर्गों में बांट दिया था। गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया, बल्कि ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से मनुष्य के मनुष्य बने रहने का वह रास्ता दिखाया जो यथार्थ के बजाय सत्य और अहिंसा पर आधारित था। चाहे उनका समाज-दर्शन हो, आर्थिक दर्शन हो या राजनीतिक दर्शन, गांधी ने मार्क्स की तरह किसी वाद को जन्म नहीं दिया। वैसे तो मार्क्स ने भी अपने दर्शन को वाद का नाम नहीं दिया था, लेकिन उनके विचार के व्यापक प्रभाव ने विचार को वाद बना दिया। गांधी अभी तक विचार ही हैं, वे वाद नहीं बने उस तरह जिस तरह मार्क्स बने। गांधी का वाद न बनना या केवल गांधी-अनुयायियों द्वारा उन पर वाद थोपना, गांधी की विचार के रूप में हत्या होगी। इसलिए गांधी को तो ‘हिंद स्वराज’ की ही संवेदना में विचार की देशज और वैश्विक चेतना में जीवित रख कर हमें साहित्य में गांधी का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए कि गांधी तुलसीदास के राम चरित मानस की तरह लोक चेतना का गीत बन सकें, मानवीय संवेदन की महागाथा बन सकें और राजनीति के वर्तमान छल-बल और धन के प्रदूषित वातावरण में उस प्रकाश की तरह लगें, जिसे एल्विन रॉफलर ने समूचे तकनीकी और सेटेलाइट-कल्चर के समक्ष खड़ा करके विश्व के बने रहने की उम्मीद जताते हुए गांधी को भविष्यवाद से जोड़ा था।
अनेक पश्चिमी चिंतकों ने कहा है कि शिक्षा और साहित्य सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान है। पाउलो फ्रेरे जैसा लेटिन-अमेरिकी समाजकर्मी जब दबे-कुचले अन्याय-ग्रस्त शोषितों का शिक्षाशास्त्र लिखता है तो अपनी दूसरी किताब में वह शिक्षा को मुक्ति का अभ्यास भी कहता है। मुक्ति का यही अभ्यास इवान इलिच स्कूल अर्थात एक प्रकार से जड़ता को डी-स्कूल करने यानी स्कूल भंग कर देने की शिक्षा कहता है, जिसका तात्पर्य है रूढ़िग्रस्त जड़ता का विचार जब भंग होगा, तभी तो चेतना एक उत्सव बनेगी। जिद्दू कृष्णमूर्ति तो इसी आंतरिक-चेतना के उत्कर्ष को शिक्षा मानते थे। साहित्य की यह चेतना शिक्षा में जब जाकर मिलती है, शिक्षा और साहित्य दोनों सियासत से मुक्त होते हैं, स्वाधीन और स्वतंत्र होते हैं और सृजन में चेतना का उत्सव मनाते हैं।
अब प्रश्न यह है कि आज अर्थात् समकाल का साहित्य क्या चेतना बन सका? तकनीक के इस उपकरणवादी भौतिक समय में, मनुष्य मशीनी उपकरण की गुलामी कर रहा है। उसकी चेतना का आकाश ही धुंधला हो गया है। वह जिस धरती पर जी रहा है, वह स्वेच्छा से न जीकर अन्येच्छा में, अन्य की अपेक्षा और अन्य की भौतिक लिप्सा से उत्पन्न परिणाम देने में जी रहा है। वह साधन-युक्त तो हो गया, लेकिन साधना-च्युत हो गया। वह उपकरणीय-सभ्यता का पुरजा तो बन कर रह गया, लेकिन अध्ययन, अनुभव और विचार की दुनिया से वंचित हो गया अथवा कर दिया गया। ऐसे में साहित्यकार अगर सियासत भी कर रहा है, तो वह राजनीतिक-कविता, कहानी, नाटक में अब रोटी, कपड़े, मकान से न जुड़कर केवल वाद से या विचारधारा से जुड़ कर रह गया है। विचार विश्व के किसी भी कोने से आए, उसका हमारे सर्जनात्मक उत्कर्ष में योगदान होना चाहिए, न कि विचार की जड़ता का वह स्कूल हम अपने कंधे पर झोले की तरह लटकाए फिरें। वाद में या विचारधारा में संवाद की स्वतंत्रता होनी चाहिए न कि विचारधारा हमारे विवेक का ही अपहरण कर ले, जैसा कि अनेक वाम-दक्षिण दोनों पंथों में दिखाई देता है। एक के पास विचार है तो, लेकिन विडंबना यह है कि वह अपने विचार को भी किसी विदेशी विचार की जींस पेंट और टी-शर्ट पहनाकर अपने भारतीय होने को भी प्रतिक्रियावाद की तरह देखता है, दूसरी ओर विचार पर सेंसर है बल्कि विचार करने का अधिकार ही नहीं है। ऐसी राजनीति उत्कृष्ट साहित्य कैसे रचेगी?
आज हमारा सृजनात्मक-जीवन, चेतना के बजाय सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से चिंताग्रस्त है। हम अपने समकाल में जीने को इतने विवश कर दिए गए हैं कि इतिहास या परंपरा में जीना मूर्खता माना जा रहा है और हमारा वर्तमान भी हमें भविष्यवाद के वायुमंडल उछाल रहा है। हो सकता है हमें इतिहास की जरूरत न हो और न हम इतिहास रचना चाहते हों, मगर इतिहास तकनीक में समाकर क्या गायब हो सका? क्या सचमुच ऐसा हुआ कि इतिहास-चेतना का विसर्जन हो गया? जो चिंतक, लेखक, साहित्य और किताब की मृत्यु की घोषणा करते हैं उन्होंने भले ही कंप्यूटर नेटवर्क को ही लेखक, साहित्य और किताब का दर्जा दे दिया हो, या मनुष्य की कल्पनात्मक-चेतना का अपहरण कर लिया हो, लेकिन यदि मनुष्य की अपनी नैसर्गिक संवेदना नष्ट हो गई तो क्या वह भविष्यवाद के टेस्ट-ट्यूब से पैदा की जाने वाली ऐसी पीढ़ी नहीं होगी जो रोबोट की तरह बनकर रह जाएगी?
एक बात तो साफ है कि अब साहित्यकार को अपनी आलोचना-दृष्टि का सम्यक उपयोग करना होगा। वह कबीर-तुलसी, प्रसाद-निराला, अज्ञेय-मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा-नामवरसिंह के निरर्थक युग्म बनाकर पंथ-सापेक्ष या पंथ-निरपेक्ष बयानबाजी करने के बजाए उनका वस्तुनिष्ठ मूल्यांंकन करे। आप कितने ही हीगलवादी, मार्क्सवादी, माओवादी हो जाएं, वे सभ्यता की शालीन दुनिया में हमारे आदर्श इसलिए नहीं हो सकते कि उनके दर्शन में हिंसा है, हमारे पास अहिंसा, उनके पास शस्त्र-वीर हैं, हमारे पास शास्त्रवीर, उनके पास युद्ध है तो हमारे पास महावीर और बुद्ध, उनके पास उपकरणों की आंधी, तो हमारे पास चरखेवाला वह गांधी जिसके पास मनुष्यता के कपास से कता सूत है और अपने ही सूत से बना वस्त्र है। वस्त्र और शस्त्र के इस बाजारवादी समय में हम साहित्य को पैकेज-फूड या जंक फूड न बनने दें।