महिला आरक्षण का गतिरोध
हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष का विधायिका में महिला आरक्षण के संबंध में प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र इसमुद््दे को पुन: चर्चा में ले आया है। इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन (आइपीयू) की रिपोर्ट तो यही बताती है कि भारत की संसद या विधानसभाओं में महिला जनप्रतिनिधियों की काफी कम उपस्थिति महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण राजनीतिक मानसिकता की देन है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में, महिलाओं के राजनैतिक विकास के संबंध में गहन विश्लेषण करने के लिए चार मुख्य बिंदुओं पर विचार करना जरूरी है- राजनीतिक जागरूकता, राजनीति में भागीदारी, राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करना तथा नेतृत्व प्राप्त कर निर्णयों को प्रभावित करना और दिशा देना। सबसे पहला पड़ाव ‘राजनीतिक जागरूकता’ है, उसके बगैर राजनीतिक विकास संभव ही नहीं। देश के राजनीतिक परिदृश्य में शुरू से महिलाओं की मौजूदगी कम बेशक रही है, पर सच यह है कि महिलाओं में राजनीतिक चेतना का विकास तेजी से हो रहा है जिसका प्रमाण हैं पिछले कुछ चुनावी आंकड़े।
महिलाएं यह जानने का प्रयास करने लगी हैं कि जिन्हें उन्हें चुनना है वे उनके हितों के प्रति सचेत हैं या नहीं। सीधे तौर पर वे नेता जो शराबबंदी, इलाकों में बेहतर सहूलियतें लाने की बात करते हैं वे उन्हें वोट देना चाहती हैं। विभिन्न अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि महिलाएं पहले की अपेक्षा कहीं अधिक मुखर हुई हैं। बिहार चुनाव से पूर्व किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों से इस तथ्य की पुष्टि होती है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र जहानाबाद के एक माध्यमिक स्कूल की अध्यापिका ने बड़े स्पष्ट तौर पर अपने विचार रखते हुए कहा था, ‘जो विकास के बारे में बात करेगा जनता उसी की होगी।’ वहीं उसी क्षेत्र की एक समाजसेविका का कहना था कि, ‘जो पार्टी महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा दिला पाएगी वही विजय हासिल करेगी।’ शराबबंदी जैसे विषय पर इसी क्षेत्र के पिंजौर गांव की महिला ने कहा ‘अगर नीतीश ने यह कर दिया तो पूरी उम्र मैं उन्हें वोट दूंगी।’ ये सभी वक्तव्य उन महिलाओं के हैं जो राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं रखती, पर वे जागरूक हैं और यही भारत की महिलाओं की राजनीतिक यात्रा की सकारात्मकता की पुष्टि है।
ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं में पंचायत चुनाव के कारण ज्यादा राजनीतिक जागरूकता आई है। महिलाओं की स्थिति की विवेचना करने के लिए 1971 में एक समिति गठित की गई थी। ‘टुवर्ड्स इक्वलिटी’ शीर्षक से 1974 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में समिति ने सुझाव दिया था कि हर राजनैतिक दल महिला उम्मीदवारों का एक कोटा निर्धारित करे और जब तक ऐसा हो, तब तक समिति ने नगर परिषदों और पंचायतों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने केलिए संविधान में संशोधन करने की सिफारिश की। 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से ऐसा किया भी गया। पंचायती राज संस्था, जो जमीनी लोकतांत्रिक ढांचे निर्मित करती है, में महिलाओं की भागीदारी ने ग्रामीण संरचना को सकारात्मक परिवर्तनों की दिशा में बढ़ाया। यह तय था कि अगर राजनीतिके निचले पायदान में महिलाओं को आरक्षण नहीं मिलता तो वे किसी भी तरह अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पातीं। तमाम राजनीतिक दल पंचायतों से लेकर निगमों तक में महिलाओं के आरक्षण को शानदार कामयाबी की तरह पेश करते हैं मगर संसद और विधानसभाओं की बात आते ही आरोप-प्रत्यारोप में बहस को उलझा देते हैं। जबकि दूसरे कई देशों में महिला आरक्षण की व्यवस्था है।
‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेटिक ऐंड इलेक्टोरल असिस्टेंस स्टॉकहोम-2014’ के आंकड़े दिखाते हैं कि ऐसे कई देश हैं जहां आम चुनावों में महिला आरक्षण का प्रावधान है। गौरतलब है कि नब्बे के दशक के शुरू में फिलीपीन्स, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने महिला प्रतिनिधियों के लिए दस से पैंतीस प्रतिशत सीटें आरक्षित कीं। इन देशों में महिलाओं को आरक्षण सिर्फ उन्हें समान नागरिक के तौर पर स्वीकार करने के लिए नहीं बल्कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्त्रीपरक दृष्टिकोण को सम्मिलित करने के लिए दिया गया है। परिवर्तन के वाहक के तौर पर राजनीतिक दलों को लैंगिक विषयों के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है और इसका सर्वश्रेष्ठ मार्ग ‘आरक्षण’ के मुद््दे पर सहमति होना है। आरक्षण का सबसे समान तरीका है कोटे का निर्धारण। या तो महिलाओं के लिए सदन में एक निश्चित अनुपात में सीटें आरक्षित हों, या फिर पार्टियों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे एक निश्चित अनुपात में महिला प्रत्याशी उतारें। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने 1991 से महिलाओं के कोटे पर बहस शुरू की और अब वहां की संसद में 43.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। महिलाओं के लिए स्वैच्छिक कोटा देने के अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के निर्णय ने वहां के विपक्षी दलों पर महत्त्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव डाला। दक्षिण अफ्रीका का यह उदाहरण दर्शाता है कि अगर कोई प्रमुख दल इस तरह का कोटा निर्धारित करता है तो वह देश के राजनीतिक वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
महिला के नेतृत्व पर अविश्वास करने वाले अक्सर यह तर्कदेते हैं कि महिलाओं में राजनीति की समझ कम होती है, क्योंकि उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा अपने घर-परिवार के बीच व्यतीत होता है। इसे आज भी महिलाओं की प्राथमिक जिम्मेदारी माना जाता है। यह तर्क कुछ नया नहीं है। यह तर्क उन्नीसवीं सदी के आरंभ से ही दिया जाता रहा है जब महिलाओं ने मताधिकार की मांग की थी।
आज विश्व की कार्यशक्तिमें बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हैं। दक्षिण अफ्रीका, नार्वे, डेनमार्क में वे विधायिका और अन्य निर्णयकारी निकायों में चालीस प्रतिशत से अधिक की संख्या में हैं। इससे सिद्ध होता है कि अगर पर्याप्त सामाजिक और पारिवारिक समर्थन मिले तो महिलाएं घर के उत्तरदायित्वों के साथ-साथ सार्वजनिक उत्तदायित्वों को भी कुशलता से निभा सकती हैं।महिला उम्मीदवारों की बाबत यह कहना कि उनमें चुनाव जीत सकने की संभावना कम होती है, तथ्यों से मेल नहीं खाता। हां, यह कटु सत्य जरूर है कि परंपरावादी सोच के प्रभाव में पुरुष को, पुरुष होने के कारण ही सक्षम मान लिया जाता है, जबकि महिलाओं को अपनी क्षमता व योग्यता सिद्ध करनी होती है। महिलाओं को नेतृत्व का जितना अधिक अवसर मिलेगा, धीरे-धीरे उनके लिए यह सहज होता जाएगा। इसका जीवंत उदाहरण पंचायतों में उनकी उपस्थिति है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि महिलाएं संवेदनशील होने के साथ-साथ कुशल प्रबंधक भी होती हैं। वे समस्याओं के साथ स्वयं को जोड़ कर उनका तार्किक और सार्थक हल ढूंढ़ने का प्रयास करती हैं। पर दुखद पहलू यह है कि उनका आकलन पुरुषों की अपेक्षा अलग तरीकों से किया जाता है।
इस संबंध में हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक करना होगा, क्योंकि दुनिया भर में यह साबित हुआ है कि नेतृत्वकारी पदों पर आसीन महिलाएं शांति और सुरक्षा के पहलुओं पर गंभीरता से ध्यान देती हैं। महिलाएं ‘महिलाओं के मुद््दे’ समझे जाने वाले मुद््दों को ‘सामाजिक मुद््दों’ के तौर पर देखती हैं, कि ये मुद््दे किस तरह से परिवारों व समुदायों को प्रभावित करते हैं। महिलाओं को अभी लंबा राजनीतिक सफर तय करना है। विभिन्न चुनौतियों के बीच, स्वयं को सिद्ध करना कठिन अवश्य है पर असंभव नहीं। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य तभी महिलाओं के प्रति संवेदनशील दिखाई देगा जब विधायिका में महिला आरक्षण का मार्ग प्रशस्त होगा।