दुर्गा स्तुति का पाठ हमारे जीवन में लाता है दैविक उर्जा, क्या है इसके पीछे का कारण
भारत वर्ष कभी सोने की चिड़िया था। और ये तब, जब जंबूद्वीप में न तो ज्ञात ढेरों सोने की खदाने थीं, न ही मज़बूत यातायात प्रणाली। फिर कैसे सम्भव हुआ होगा ये। दरअसल हम ज्ञान और विज्ञान में बेहद समृद्ध थे। हमारे मनीषियों नें निश्चित रूप से संभवत: ध्वनि के शब्द संयोजन से ऊर्जा को रूपांतरित करने की वैज्ञानिक विधि इजाद कर ली थी। जो काम्य प्रयोगों में बेहद अचूक और कारगर थी। यही प्रणाली कालांतर में स्तोत्र और कवच कहलाई। नवरात्रि में मार्कण्डेय पुराण के सात सौ श्लोकों के सस्वर पठन का विशिष्ट उल्लेख हमारी परम्पराओं में पाया जाता है, जिसे हम चण्डी पाठ कहते हैं। शक्ति उपासना और नवरात्रि दोनों आपस में घुले- मिले है। धार्मिक और ऐतिहासिक कथायें विजय और शक्ति प्राप्ति के लिये देवी उपासना और चण्डीपाठ का बखान करती हैं। मान्यताएं कहती हैं विजयश्री के सूत्र प्राप्त करने के लिये श्रीराम नें ऊर्जा के रूपांतरण की सस्वर पद्धति अपनाई, जिसे देवी स्तुति कहा जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये माना जाता है कि श्रीरामचंद्र ने शारदीय नवरात्रि की प्रतिपदा को समुद्र तट पर सस्वर चण्डीपाठ किया। तृतीया तिथि से युद्ध आरम्भ हुआ और दशमी को दशानन की बहत्तर करोड़ सैनिकों वाली सेना को पराभूत कर विजयश्री का वरण किया। चण्डीपाठ प्राचीन वैज्ञानिक ग्रंथ मार्कण्डेय पुराण के वो सात सौ श्लोक हैं, जो स्वयं में ऐसे वैज्ञानिक फ़ॉर्म्युला प्रतीत होते हैं, जो अपने शब्द संयोजन की ध्वनि से व्यक्ति के भीतर रासायनिक क्रिया करके उसकी आन्तरिक शक्ति के अनन्त विस्तार की क्षमता रखते हैं। जैसे मानसिक शक्ति का विस्तार करके एक मार्शल आर्ट का अभ्यासी पाषाण शिलाओं और फौलाद को बिखेर देता है।
चण्डीपाठ के रूप में ये फ़ॉर्म्युला यानि समस्त सात सौ श्लोक अर्गला, कीलक, प्रधानिकम रहस्यम, वैकृतिकम रहस्यम और मूर्तिरहस्यम के छह आवरणों में लिपटे हुए हैं। इसके सात सौ मंत्रों में से हर मंत्र अपने चौदह अंगों के तानों बानों में बुना हुआ है, जो इस प्रकार हैं- ऋषि, देवता, बीज, शक्ति, महाविद्या, गुण, ज्ञानेंद्रिय, रस, कर्मेंद्रिय स्वर, तत्व, कला, उत्कीलन और मुद्रा। माना जाता है कि संकल्प और न्यास के साथ इसके उच्चारण से हमारे अंदर एक रासायनिक परिवर्तन होता है, जो आत्मिक शक्ति और आत्मविश्वास को फलक पर पहुंचाने की कूवत रखता है। मान्यताएं इसे अपनी आंतरिक ऊर्जा के विस्तार के लिये विलक्षण मानती हैं। चण्डी पाठ फ़लक पर बैठी किसी देवी की उपासना से ज़्यादा स्वयं की दैविक ऊर्जा के संचरण यानि विकास और विस्तार की पद्धति प्रतीत होती है।