रिपोर्टर की डायरी: हमें तो बस ज़िंदा रहना है…गोलाबारी के बीच पुंछ से लौट रहे प्रवासी मजदूरों का दर्द

राजौरी की सुबहें आमतौर पर लोहे की छड़ों की खनक, ईंटों की थाप और मज़दूरों की हंसी-ठिठोली से गूंजती हैं. लेकिन इस बार सब कुछ थम गया था.हवा में केवल एक चीज़ तैर रही थी — डर. कच्चा,अनकहा,भारी सा.लाइन ऑफ कंट्रोल तो हमेशा तनाव में रहता है,मगर इस बार पाकिस्तानी गोलाबारी की बौछार कुछ ज़्यादा ही बेरहम थी-राजौरी और पुंछ के गांवों में छिपी शांति को गोले चीरते जा रहे थे. और तब मैंने देखा — लोग भाग रहे हैं. धीरे…चुपचाप…बिना किसी योजना के.अपने नहीं,परायों के बनाए उन घरों से, जिन्हें उन्होंने अपने हाथों से खड़ा किया था…ईंट दर ईंट,पसीना और सपना जोड़कर.

बिहार-बंगाल के सैकड़ों मजदूर खौफ में

जवाहर नगर — राजौरी का वो इलाका जहां बिहार और बंगाल के सैकड़ों मज़दूर रहते हैं.वहां शनिवार सुबह-सुबह एक ख़ामोश पलायन शुरू हो गया. मैंने बंगाल के मोहम्मद इंतिखाब आलम से मुलाक़ात की, फटी हुई पिट्ठू थैली खींचते हुए, वो चले जा रहे थे. उनकी आँखें लाल थीं — धूल से नहीं,नींद और डर के भाव से. वे बताते हैं- “अब्बा-अम्मी बार-बार फ़ोन कर रहे हैं…रोते हैं…बस कहते हैं, जान बचा लो बेटा,पैसा बाद में कमा लेना.” उनके गले में अटका हुआ एक दर्द था…आंसू नहीं थे. लगा शायद डर, आंसुओं को भी सोख लेता है.

थोड़ा आगे, मोहम्मद सालिक अपनी मासूम बच्ची को गोद में लिए हुए था. उसके पास सिर्फ़ एक चीज़ थी — उसकी बेटी. “अब आगे क्या करोगे?” मैंने पूछा तो उन्होंने कहा- “कुछ नहीं सोचा… बस निकल जाना है,” उन्होंने धीरे से कहा – “हमें बस ज़िंदा रहना है.” ये शब्द, इन दिनों हर मज़दूर की ज़ुबान पर — “हमें बस ज़िंदा रहना है।” इसी तरह हमें दिलबर आलम मिले. वे बिहार के किशनगंज से हैं…बंद पड़ी दुकान के सामने खड़े थे. पूछने पर थकी मुस्कान के साथ कहा- “काम करने आए थे…अब जान बचाकर भाग रहे हैं.” वो जानते हैं- राजौरी में सुबह कहां से चाय मिलती है, ठेकेदार सुबह कहां खड़ा होता है.अब सब धुंधला हो गया था —जैसे वो ज़िंदगी किसी और की थी. इस आपाधापी के बीच आज वो ईंटें नहीं रख रहे, आज वो राजौरी से जाने की जद्दोजेहद में हैं …