साझेदारी का तकाजा

नदियां, समुद्र और पहाड़ राष्ट्रों की हद में नहीं होते। इसलिए इनके प्रति एक वैश्विक और मानवतावादी नजरिया ही मायने रखता है। लिहाजा, गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उचित ही एक बहुत जरूरी मसला उठाया है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के तेरहवें स्थापना दिवस के समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि नदियों के पानी से संबंधित आंकड़ों को पड़ोसी देश एक दूसरे से साझा करें, यह एक मानवीय तकाजा है और इसे अमली जामा पहनाने के लिए राजनयिक स्तर पर प्रयास करने होंगे। भारत ने इस दिशा में पहल भी शुरू कर दी है। इस पर सहमति बनाने के लिए जल्द ही एक लिखित प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र तथा विभिन्न देशों के दूतावासों को भेजा जाएगा। इसके अलावा, अगले महीने बिम्सटेक की होने वाली बैठक में भी भारत सरकार इस पर चर्चा कराने की तैयारी में है। यह मुद्दा क्यों इतना अहम है? इसलिए कि भारत में बहने वाली कई नदियों का उद्गम तिब्बत में है, और इन नदियों में आने वाली बाढ़ से कारगर ढंग से निपटने के लिए यह जरूरी है कि उन नदियों में पानी के प्रवाह और पानी की मात्रा आदि के बारे में सूचनाएं समय से मिल सकें। इसी मकसद से चीन और भारत के बीच 2006 में एक समझौता हुआ था। फिर 2013 में भी इस आशय का करार हुआ।

इन समझौतों के तहत तय हुआ था कि पंद्रह मई से पंद्रह जून के बीच, यानी मानसून के सीजन में सतलुज और ब्रह्मपुत्र नदियों में पानी के प्रवाह और पानी की मात्रा से संबंधित आंकड़े चीन भारत के साथ साझा करेगा। लेकिन इस साल चीन ने ये आंकड़े नहीं दिए। खासकर असम और बिहार की बाढ़ के मद््देनजर भारत को यह अखरना स्वाभाविक था। चीन का व्यवहार द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन ही कहा जाएगा। इस साल आंकड़े मुहैया न कराने का कोई संतोषजनक कारण चीन नहीं बता सका है। उसने कहा है कि तिब्बत में संबंधित नदियों के पानी और प्रवाह से संबंधित आंकड़े इकट्ठा करने के तकनीकी सरंजाम को और अद्यतन बनाने में लगे रहने के कारण वह अपेक्षित सूचनाएं इस बार नहीं दे सका। पर बहुत-से लोगों का अनुमान है कि यह दलील एक दिखावा है, असल कारण डोकलाम विवाद हो सकता है। डोकलाम में भारत की दृढ़ता चीन को नागवार गुजरी। पर इसकी खीझ जल समझौतों पर निकालने का कोई औचित्य नहीं है।

भारत और पाकिस्तान के बीच, इससे बहुत ज्यादा तनाव और तकरार के मौके लंबे समय से आते रहे हैं। पर भारत ने और सख्त कदम भले उठाए हों, सिंधु जल बंटवारे की संधि का हमेशा पालन किया। जिन देशों के हिस्से में नदियों का उद्गम या ऊपरी क्षेत्र आता है वे इस स्थिति में होते हैं कि चाहें तो पड़ोसी देश का हक मार लें। पर ऐसा होने लगे तो पानी के लिए विश्वयुद्ध छिड़ने की चेतावनी सच साबित होगी। फिर देशों के भीतर भी नदी का उद्गम या ऊपरी क्षेत्र किसी एक राज्य के हिस्से में होता है, तो बाकी हिस्सा किसी और राज्य के भीतर। इसलिए इस पर आम सहमति बनी हुई है कि पानी पर सबका हक है और सबको मिलना चाहिए। चीन ने ब्रह्मपुत्र पर अपने विशाल बांधों की बाबत भारत की चिंताओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया, पर जो द्विपक्षीय समझौते हो रखे हैं उनका पालन तो उसे करना ही चाहिए।

 

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