मौन का अभिनय
अभिनय की अनेक श्रेणियां हैं। मूकाभिनय यानी माइम उनमें एक है। बिना कुछ बोले अभिनय के जरिए पूरी बात कह देने की कला ही माइम है। मूकाभिनय पूरी दुनिया में एक स्वतंत्र कला के रूप में विकसित है। चार्ली चैप्लिन इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। पर हमारे यहां, खासकर पश्चिम बंगाल में, इसके प्रख्यात कलाकार हुए हैं। उन्होंने एक तरह से मूकाभिनय को आंदोलन का रूप भी दिया है। दक्षिण में कथकलि जैसी नृत्य विधाएं एक तरह से मूकाभिनय ही तो हैं। मंच पर अभिनीत होने वाले नाटकों की तुलना में मूकाभिनय का स्वतंत्र और विशिष्ट स्थान क्यों है और इसकी क्या प्रासंगिकता है, इस बारे में चर्चा कर रहे हैं-प्रयाग शुक्ल।
वह धीरे-धीरे एक-एक कर अपना दायां-बायां पैर उठाते हैं, क्रमश: चलने की गति तेज करते हैं, और अचंभा कि आपके देखते-देखते वहां सीढ़ियां बन जाती हैं, जहां सीढ़ियां हैं ही नहीं! यह सुप्रसिद्ध माइम कलाकार निरंजन गोस्वामी हैं, जिनसे मेरी पहली भेंट आज से कोई पंद्रह वर्ष पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के एक कमरे में हुई थी। हमारे आग्रह पर, कि कृपया वह ‘माइम’ का कोई दृश्य हमें दिखाएं, उन्होंने यह ‘सीढ़ी दृश्य’ रचा था, जिसे देखते हुए हम चमत्कृत हो गए थे। ऐसा नहीं कि माइम की प्रस्तुतियां मैंने पहले नहीं देखी थीं- वे तो कई देखी थीं- पर, निकट से माइम-रचना का यह दृश्य आत्मीय भी था, और एक जादू जगाने जैसा भी! हां, सचमुच यह जादू हमेशा के लिए स्मृति में टंका रह गया है। फिर तो, निरंजन दा से मैत्री हुई जो आज भी कायम है।
कोलकाता और पश्चिम बंगाल में माइम और कठपुतली कला के बहुतेरे कलाकार उभरते रहे हैं। निरंजन दा अगर माइम कलाकार के रूप में देश-दुनिया में जाने जाते हैं, तो कोलकाता के सुरेश दत्ता अपनी अद्भुत पपेट-प्रस्तुतियों के लिए। और जोगेश दत्ता, वह तो हैं ही एक नई पहल करने वाले। हां, कलाएं जादू जगाती हैं- बस कलाओं के जादू और जादूगरों-बाजीगरों की कला में इतना ही फर्क है कि कलाओं में- चित्रकला में, मूर्तिकला में, माइम-पपेट कला में, कथकलि, और कई अन्य नृत्य रूपों में, आपको पहले से यह पता नहीं होता कि आप ‘जादू’ देखने जा रहे हैं। कलाओं का जादू, धीरे-धीरे खुलता है और आपके स्पंदन में, बुद्धि और भावना कोष को जागृत करता हुआ, व्याप जाता है। अभिनय जादू है। माइम जादू है। नृत्य-संगीत सब अपनी तरह का जादू ही तो हैं।
माइम अभिनय ही है, मूकाभिनय। शब्दों का व्यवहार नहीं करती। कठपुतली अपने मुंह से कुछ नहीं कहती। पर माइम में, कठपुतली में, बिना शब्दों के कथा-प्रसंग, विषय-वस्तुएं, कथानक, कथा-आशय अपने को व्यंजित करते हैं। और उसी अद्भुत व्यंजना को देखते-महसूस करते, हम मानो चमत्कारों के एक संसार में चले जाते हैं।
कलाएं, चमत्कारी बाबाओं-गुरुओं आदि से कोसों दूर रहती हैं। पर उनके कलाकार, वास्तव में चमत्कार की रचना करते हैं। अब देखिए, चार्ली चैपलिन के ‘जादू’ को ही। वह आज तक बरकरार है। उनकी कोई फिल्म जब आप किसी सिनेमाघर में या टीवी पर देखते हैं, या जब कहीं वह खुले में भी परदे पर उभर रही होती है, किसी प्रांगण में, मैदान में की गई स्क्रीनिंग में, तो क्या बच्चे, क्या बड़े, क्या स्त्री, क्या पुरुष- सब उन्हें देख कर हंसते हैं। हां, उन्हें और उनकी फिल्मों दोनों को देख कर हंसते हैं। चार्ली चैपलिन की छड़ी, हैट और मूंछें और उनकी कुल वेशभूषा, उनका नाम आते ही हमारी आंखों के सामने उभर आती है। मूक फिल्मों के लिए किया गया उनका मूकाभिनय इतना शानदार, इतना जीवंत, इतना स्पृहणीय है कि वह हजारहा शब्दों के साथ किए जाने वाले अभिनय को मात करता है।
तो, अभिनंदन करते हैं हम उस मूकाभिनय का। मूकाभिनय में कलाकार, अपने चेहरे को रंग कर, मानो एक मुखौटे की शक्ल में तब्दील कर लेता है, जिससे कि तटस्थ होकर इस या उसकी नकल उतार सके, और हमें हंसा सके, हमारा मनोरंजन कर सके! हां, मूकाभिनय का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन ही है। पर, कलाकार बहुत गहरी विषय-वस्तुओं को व्यंजित कर सकता है, बहुत गंभीर विषय वस्तुओं को, और फिर भी आपको हंसा सकता है। हमारे देश में ऐसी कलाएं रही हैं, और हैं, जिनमें ‘नकल’ उतारने के बहुतेरे तत्त्व सक्रिय रहे हैं, भले ही वे ‘माइम’ के अंतर्गत न आती हों। और एक कला-रूप के अर्थ में उनका विस्तार, उनकी व्यंजनाएं, उनकी विधियां, किसी और प्रयोजन के लिए (रही) हों। कथकलि से लेकर, कूडिआट्टम तक, ऐसे बहुतेरे रूप गिनाए जा सकते हैं, जिनमें मूकाभिनय के प्रसंग और तत्त्व समाहित हैं। यह अकारण नहीं है कि जब निरंजन गोस्वामी ने अपने युवा दिनों में, ‘माइम’ सीखने के लिए एक इतालवी स्कॉलरशिप के लिए आवेदन करना चाहा था, तो विदुषी कपिला वात्स्यायन ने उन्हें सलाह दी थी कि पहले वे केरल क्यों नहीं चले जाते, और वहां के कला-रूपों का अध्ययन क्यों नहीं करते!
उनकी यह सलाह निरंजन गोस्वामी ने मानी थी। और सदा इस सलाह के लिए कपिला जी के ऋणी रहे हैं। तो कथकलि और कुडिआट्टम से लेकर ‘बहुरूपिया’ कला तक में, और सर्कस के जोकर समेत, बहुतेरे कला-रूपों में मूकाभिनय के संकेत हैं, तत्त्व हैं। पर, इसमें भी सच्चाई है कि आधुनिक काल में, पश्चिम में, और हमारे यहां भी ‘माइम’ का विकास एक स्वतंत्र कला-रूप की तरह हुआ है। और ‘माइम’ कला के प्रदर्शन के एकल कार्यक्रम अब विभिन्न मंचों पर होते हैं- किसी नाट्य समारोह में, किसी स्कूल-कॉलेज में या किसी संस्था के आमंत्रण पर, उसी के मंच पर! और माइम कलाकारों की एक जमात, अब हमारे यहां भी मौजूद है, जो अपने प्रदर्शनों के लिए देश-दुनिया के भ्रमण को भी तैयार रहती है। दरअसल, नकल उतारने की परंपरा इतनी पुरानी है और वह इतने रूपों में इतने सक्षम ढंग से सामने आती रही है कि अचंभा-सा होता है। देश-दुनिया में जाने-माने रंगकर्मी और दक्षिण की पारंपरिक नाट्य-विधियों के अध्येता, और सर्जक, कावालम नारायण पणिक्कर बताया करते थे कि एक कुडिआट्टम कलाकार ने जब एक अंग्रेज अधिकारी की ओर पत्थर फेंकने का मूकाभिनय किया, तो वह अंग्रेज अधिकारी भाग खड़ा हुआ-यह मान कर कि सचमुच एक पत्थर है जो उसकी ओर चला आ रहा है।
देखें तो, नकल उतारने की प्रतिभा कुछ लोगों में जन्मजात होती है, या कुछ लोगों को अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसे प्रदर्शित करने में विशेष आनंद आता है। कई बच्चे पुलकित होते हुए अपने माता-पिता से लेकर, अपने भाई-बहनों, संबंधियों और अपने अध्यापक/ अध्यापिकाओं के चलने-फिरने, बैठने और बोलने-बतियाने तक के अंदाज की ऐसी नकल उतारते हैं कि आप दंग रह जाएं। समझदार लोग इस विनोद-व्यंग-हास्य वाली नकल का बुरा नहीं मानते, और कभी-कभी तो वह व्यक्ति जिसकी नकल पहले भी उतारी गई हो, ऐन उसी के सामने यह आग्रह करता है किसी अन्य अवसर पर कि एक बार फिर वही नकल उसे दिखाई जाए! विचित्र-सी आदतों वाले व्यक्तिकी नकल बहुतों को प्रिय हो उठती है, और चश्माधारी व्यक्ति की नकल उतारने के लिए, बच्चे थोड़ी देर के लिए किसी का चश्मा लेकर उसे पहन भी लेते हैं, जिससे नकल और अधिक वास्तविक लगे। पर ठेठ ‘माइम’ के प्रदशर्नों में, ऐसी सुविधा नहीं होती। वहां तो जो कुछ करना है, बिना किसी साजो-सामान के करना है।मारे देश में माइम आंदोलन को सक्रिय करने वालों में जोगेश दत्ता का योगदान अप्रतिम है। भारत विभाजन के समय उनका परिवार एक शरणार्थी के रूप में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत आया था, और कोलकाता के सियालदह स्टेशन में उसे शरण मिली थी। अन्य लाखों शरणार्थियों की तरह, उसने भी न जाने कितनी तरह की कठिनाइयां झेली थीं।
स्वयं जोगेश को भी छुटपन से ही चाय की दुकान, और फिर एक किराने की दुकान में काम करना पड़ा था। जीवन के, और मानो माइम के भी पाठ, उन्होंने अपने संघर्षमय जीवन से ही सीखे थे। बड़े होकर जब उन्होंने एक झील किनारे बेंच पर बैठे प्रेमी-जोड़ों की ‘प्रेम-चेष्टाओं’ की नकल मित्रों को दिखानी शुरू की, तो वह उन्हें बेहद पसंद आई। धीरे-धीरे नकल में उनका रुझान बढ़ता गया, और उन्होंने एक प्रस्तुति तैयार की- आईने के सामने सजती हुई स्त्री की। यह 1956 की बात है। तब से अबाध गति से उनकी माइम यात्रा चलती रही है। 2010 के आसपास उन्होंने मंच पर आखिरी बार प्रवेश किया, और चुपचाप एक-एक कर माइम वाली वेशभूषा उतार कर मंच पर रख दी। यह एक संकेत था कि ‘अब और नहीं’। उस वक्त वह एक शब्द नहीं बोले जो माइम के, मूकाभिनय के अनुरूप ही था। पर, करतल ध्वनि सभागार में गूंज उठी। लोग खड़े होकर उनकी माइम-महिमा का अभिनंदन करने लगे। जोगेश दत्त का कहना है- ‘माइम को एक स्वत:स्फूर्त शारीरिक शक्ति की जरूरत होती है, गतियां तेजी से बदलती हैं इसमें’। जो भी आप कर रहे होते हैं, धीमी या तेज गति से, उस पर पूर्ण नियंत्रण रखना होता है, दृश्यों की एक अटूट कड़ी बनानी पड़ती है।’
माइम में विस्मय और उत्सुकता का भाव भी निरंतर बनाए रखना पड़ता है। और कुछ ऐसी भाव स्थितियां रचनी पड़ती हैं, जिन्हें देख कर लगे कि अभिनेता-कलाकार कुछ देख या करके चौंक-सा रहा है। उसका यह चौंकन्नापन दर्शकों में भी एक चौकन्नेपन को सक्रिय करता है। जोगेश दत्ता की एक लोकप्रिय प्रस्तुति रही है, ‘कांच की दीवार और चोर’। इसमें यही चौकन्नापन व्याप्त है। इस कलाकार ने माइम की निजी प्रस्तुतियों से भले विदा ले ली हो, पर, माइम का प्रशिक्षण बहुतों को दिया है। और इस प्रशिक्षण के लिए, माइम के उन्नयन के लिए, अकादेमी भी बनाई है। जोगेश दत्ता को माइम के लिए संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार मिल चुका है। यह पुरस्कार निरंजन गोस्वामी को भी मिला है। उन्होंने भी माइम के प्रशिक्षण के लिए अपनी जो मंडली बनाई है, उसमें माइम की विधियों, उसमें काम आने वाली वेश-भूषा, मेकप आदि के शोध और अध्ययन को बढ़ावा दिया जाता है। इन दोनों की अपनी मंडलियां भी रही हैं। जोगेश दत्ता की मंडली ‘पदावली’ नाम से जानी जाती है, और निरंजन गोस्वामी की ‘इंडियन माइम थिएटर’ नाम से।
निरंजन गोस्वामी का कहना है कि अब ‘माइम स्थितियां’ बहुत कुछ बदल चुकी हैं। माइम को लेकर नेट पर तरह-तरह की सामग्री उपलब्ध है। यू ट्यूब में माइम कार्यक्रमों के बहुतेरे ट्यूब भी उपलब्ध हैं। इन्हें देख कर भी लोग माइम सीख, रहे हैं, सराह रहे हैं। कंप्यूटर स्क्रीन पर दुनिया भर की माइम प्रस्तुतियों की, माइम के कलाकारों की छवियां और जानकारियां भी उपल्बध हैं। दक्षिण में, तेलंगाना क्षेत्र के मधुसूदन ने, माइम में देशव्यापी ख्याति अर्जित की है- उनका कामकाज ‘इंडियन माइम एकेडेमी’ के जरिए आगे बढ़ रहा है। वे नागभूषण और निरंजन गोस्वामी के शिष्य हैं।मेरिका में माइम के स्ट्रीट परफॉर्मेंस भी लोकप्रिय हैं। आम हैं। वाशिंग्टन जैसे शहरों में। जहां, अचानक ही किसी सड़क-गली में, सार्वजनिक स्थल में, कोई माइम कलाकार प्रकट होकर, अपने ‘करतब’ दिखाने लग सकता है। अच्छे कार्यक्रमों से, अच्छी या ठीकठाक कमाई भी होती है। लोग कलाकार के हैट में सिक्कों और नोटों के रूप में कुछ न कुछ रकम डालते हैं।
नेट पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विभिन्न देशों के माइम कलाकारों की एक सूची भी मिलती है: इसमें दुनिया भर में जाने गए फ्रेंच अभिनेता मार्सेल मार्सेउ के नाम के साथ भारत के जोगेश दत्ता का भी नाम है। मार्सेल मार्सेउ का कहना था : माइम ‘मौन की कला है’। अनंत छवियां हैं, अनंत प्रसंग हैं, अनंत प्रस्तुतियां हैं अब माइम की, मूकाभिनय की-जिसका उल्लेख भरत के नाट्यशास्त्र में भी मिलता है। हमारे शहरों में,महानगरों में माइम कलाकारों की नयी पीढ़ियां भी उभरी हैं। पर, अभी वह लोकप्रियता, वह सराहना, और जीविका का साधन बन सकने लायक वह सुविधा मिलनी बाकी है, जो ‘माइम’ शब्द के उच्चार के साथ हमारे मन में एक हलचल-सी मचा दे। यह तो एक स्थिति की, तथ्य की बात हुई, पर, अपने आप में माइम, मूकाभिनय है तो गजब की चीज ही न!