2014 का ग्रीष्म और अब
हंगामा या विवाद मैंने नहीं खड़ा किया है। दरअसल, मेरी शिकायत बस यह है कि जानकार व्यक्तियों ने (मेरी राय को किनारे रख दें) जो कहा या लिखा है उसका सरकार और अर्थव्यवस्था के उसके प्रबंधन पर कोई असर हुआ दिखता नहीं है। गलती सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई, उसका कोई संकेत तक नहीं दिया गया। इसके विपरीत, सरकार लगातार और हठपूर्वक यही दोहराती रही कि ‘सब कुछ ठीकठाक है’। नितांत अप्रत्याशित रूप से, यशवंत सिन्हा ने 27 सितंबर, 2017 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के मध्य-पेज पर एक लेख लिखा। मैंने उनकी हिमायत करने की कोई उतावली नहीं दिखाई। मैंने तो बस यही रेखांकित किया कि सिन्हा ने वही कहा है जो मैं और कई अन्य लोग पंद्रह महीनों से कहते आ रहे थे।
सिन्हा की सहमति
सिन्हा के लेख के मुख्य बिंदुओं पर नजर डालें (और देखें कि कैसे वे इस स्तंभ में निम्नलिखित तारीखों पर कही गई मेरी बातों से मेल खाते हैं):
* कि भाजपा/राजग सरकार को तेल की नीची कीमतों के रूप में एक भारी अप्रत्याशित लाभ मिला था, जो उसने गंवा दिया। (14 जनवरी, 2016)
* कि निजी निवेश सिकुड़ गया है जो कि पिछले दो दशक में कभी नहीं हुआ था। (15 जनवरी, 2017)
* कि औद्योगिक उत्पादन लुढ़क गया है। (11 जून)
* कि निर्यात घट गया है। (1 जनवरी)
* कि नोटबंदी पूरी तरह एक विपदा साबित हुई है। (3 सितंबर)
* कि मनमाने ढंग से तय किया गया जीएसटी का स्वरूप और उसका खराब क्रियान्वयन कारोबार की बर्बादी का तथा उनमें से कइयों के पूरी तरह डूब जाने का सबब साबित हुआ है। (2 जुलाई)
* कि लाखों लोगों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा है और श्रम बाजार में नए-नए दाखिल होने वालों के लिए नए अवसर नगण्य हैं। (9 अप्रैल)
* कि 5.7 फीसद की वृद्धि दर वास्तव में 3.7 फीसद या उससे कम है।
स्वाभाविक है, सरकार कुपित और क्षुब्ध है, और उपहास उड़ाने तथा निंदा करने में उसने सारा संकोच त्याग दिया है।
वादे से उलट
2014 के ग्रीष्म में एक महान वादा किया गया था। भाजपा पहली पार्टी थी जिसे तीस साल में अकेले अपने बहुमत के बल पर सरकार बनाने का मौका मिला। इसे विरासत में एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली थी जिसकी वृद्धि दर 2102-13 के 5.5 फीसद से बढ़ कर 2013-14 में6.4 फीसद हो गई थी (सरकारी आंकड़े)। महंगाई की दर में लगातार गिरावट का क्रम था। महंगाई सितंबर 2013 में 10.5 फीसद थी (राजकोषीय घाटे और व्यय की सीमाओं का उल्लंघन करने के कारण), जो जून 2014 में घट कर 5.77 फीसद पर आ गई थी। मौजूदा चालू खाते का घाटा जनवरी से मार्च 2014 की तिमाही में 0.24 फीसद पर था। यह स्थिति साहसिक ढांचागत सुधारों के लिए उपयुक्त थी। ‘विरासत की समस्याओं’ वाला तथाकथित तर्क, एक झूठा तर्क है। हर सरकार को विरासत में कुछ मुद््दे मिले होते हैं, और यह उम्मीद की जाती है कि वह उनका सामना करेगी।
2017 के शरद में तस्वीर मायूस करने वाली है। आर्थिक वृद्धि घट कर अप्रैल-जून 2017 में 5.7 फीसद पर आ गई; इसी तिमाही में चालू खाते का घाटा बढ़ कर 2.4 फीसद पर पहुंच गया; औद्योगिक उत्पादन सिकुड़ कर जून में 0.17 फीसद पर आ गया, इसके बाद जुलाई में इसमें वृद्धि हुई भी तो बहुत मामूली, बस 1.2 फीसद; और अनुमान है कि जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच पंद्रह लाख लोगों के रोजगार छिन गए। 2014 के ग्रीष्म की महती अपेक्षाओं से इन दिनों की निराशाजनक स्थिति तक हम कैसे पहुंचे? हम वैश्विक आर्थिक परिदृश्य को दोष नहीं दे सकते, क्योंकि वह अनुकूल रहा है। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के मुताबिक 2016 में 3.2 फीसद की वृद्धि के बाद, वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि 2017 में 3.5 फीसद और 2018 में 3.6 फीसद होनी चाहिए। इसके अलावा, कच्चे तेल की कीमतें 58.30 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर बनी हुई हैं। निराशाजनक तस्वीर की वजहें फिर से गिनाने की कोई तुक नहीं है। उन कारणों को दूर करने के लिए सरकार की अक्षमता की तह में जाना होगा।
गहरे कारण
पहली बात तो यह कि विचार-विमर्श और निर्णय-प्रक्रिया में समावेशिता नहीं है। सारा प्राधिकार प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित है। यह मॉडल गुजरात में भले काम किया हो (हालांकि इस पर मुझे संदेह है), पर निश्चय ही यह एक संघीय ढांचे में काम नहीं कर सकता, जहां इतने सारे मंत्रालय और महकमे, अनेक स्वायत्त प्राधिकार, नियामक और न्यायिक निकाय तथा अदालतें हों।
दूसरी सवाल भाजपा में काम संभालने वाले लोगों की तादाद का है। अगर प्रतिभावान व्यक्तियों की कमी नहीं है, तो एक मंत्री के पास कई मंत्रालय क्यों हैं?
तीसरे, जो सुनने में आता है उसके मुताबिक मौजूदा मंत्रिमंडल विचार-विमर्श करने वाली संस्था नहीं है। इसके बजाय यह एक राष्ट्रपति के मंत्रिमंडल जैसा अधिक है, जिसका काम है कहीं और लिये गए निर्णयों पर चुपचाप, बिना ना-नुकर किए हामी भर देना। उदाहरण: नोटबंदी। जब एक मंत्रिमंडल, मंत्रिमंडल की तरह काम नहीं करता, अच्छे विचार जड़ नहीं पकड़ पाते, और बुरे विचारों को रोकना संभव नहीं रहता।चौथे, सरकार अपने कार्यकाल के आरंभ में ही आर्थिक नीति से संबंधित एक विश्वसनीय टीम बनाने में नाकाम रही। हर हाल में, कम से कम आधा दर्जन ऐसे अर्थशास्त्री सरकार के व्यापक दायरे में होने चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हों। लेकिन सरकार ने तो आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ नौकरशाहों को भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नहीं रखा। सरकार डॉ रघुराम राजन को बनाए रखने की इच्छुक नहीं थी, और डॉ अरविंद पनगड़िया को बनाए नहीं रख सकी। जबकि डॉ अरविंद सुब्रमणियम ने अनिच्छा से अपने पद पर एक साल और बने रहना स्वीकार किया है।
पांचवीं बात यह कि किसी की कोई जवाबदेही नहीं है। एक भले इरादों वाले मगर नाकाम रेलमंत्री को उद्योग व वाणिज्य मंत्रालय की कमान दे दी गई। निर्यात का इंजन खड़खड़ा रहा था, फिर भी वाणिज्यमंत्री को रक्षामंत्री बना दिया गया। फिर तारीफ में कहा गया कि सुरेश प्रभु एक ईमानदार, भले आदमी हैं, और निर्मला सीतारमण की नियुक्ति से स्त्री सशक्तीकरण को बल मिलेगा और एक अन्यायपूर्ण हदबंदी टूटेगी।अंतिम बात यह कि, हो सकता है भाजपा यह मान कर चल रही हो कि चूंकि उसने चुनाव जीतने (उत्तर प्रदेश) और सौदेबाजी (बिहार) का फार्मूला पा लिया है, इसलिए उसे कामकाज या कामकाज के परिणाम को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है।गहरे कारणों की बात मैं क्यों करूं, जब तक सरकार आर्थिक मंदी की तह में जाने और समस्याओं का सामना करने को तैयार न हो।