कुर्बानी या अंधविश्वास : निर्दयी पिता ने मासूम से जान को अंगारों पर सुलाया
आज देशभर में इमाम हुसैन की शहादत की याद में मुहर्रम का जुलूस निकाला जा रहा है, वहीं एक निर्दयी पिता ने अंधविश्वास में पड़कर अपने मासूम से जान को केले के पत्ते में लपेटकर जलते कोयले के ऊपर रख दिया। यह सब इस पिता ने इसलिए किया, क्योंकि, उसका ये आस्था है कि उसके ऐसा करने से अल्लाह-तल्लाह खुश होंगे। मामला कर्नाटक के कुंडगोल का है। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि यह परंपरा यहां सालों से मनाई जा रही है। लोग दूर-दूर से यहां मुहर्रम के मौके पर आते हैं और इमाम हुसैन की याद में ऐसी कुर्बानी देते हैं। जिससे उनके गुनाहों की माफी उन्हें मिल सके।
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम
इमाम हुसैन की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। यह कोई त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन है। इमाम हुसैन अल्लाह के रसूल यानि मैसेंजर पैगंबर मोहम्मद के नाती थे। मोहम्मद साहब के मरने के लगभग 50 वर्ष बाद मक्का से दूर कर्बला के गवर्नर यजीद ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया। यजीद बहुत जालिम था। हजरत इमाम हुसैन ने उसके खिलाफ जमग का ऐलान कर दिया था। मोहम्मद-ए-मस्तफा के नवासे हजरत इमाम हुसैन को कर्बला नामक स्थान में परिवार व दोस्तों के साथ शहीद कर दिया गया था। जिस महीने में हुसैन और उनके परिवार को शहीद किया गया था वह मुहर्रम का ही महीना था। जिस दिन हुसैन को शहीद किया गया वह मुहर्रम के ही महीना था और उस दिन 10 तारीख थी। जिसके बाद इस्लाम धर्म के लोगों ने इस्लामी कैलेंडर का नया साल मनाना छोड़ दिया। बाद में मुहर्रम का महीना गम और दुख के महीने में बदल गया।
मुहर्रम माह के दौरान शिया समुदाय के लोग 10 मुहर्रम के दिन काले कपड़े पहनते हैं। वहीं अगर बात करें मुस्लिम समाज के सुन्नी समुदाय के लोगों की तो वह 10 मुहर्रम के दिन तक रोजा रखते हैं। इस दौरान इमाम हुसैन के साथ जो लोग कर्बला में शहीद हुए थे उन्हें याद किया जाता है और इनकी आत्मा की शांति की दुआ की जाती है। जिस स्थान पर हुसैन को शहीद किया गया था वह इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है। मुहर्रम महीने के 10वें दिन को आशुरा कहा जाता है। मुहर्रम के दौरान जुलूस भी निकाले जाते हैं।