असहमति से खौफ

केंद्र सरकार के चौथे साल की शुरुआत और चौथी हत्या। कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे और फिर गौरी लंकेश। ये सब सत्ताधारी वर्ग और कट्टरपंथी ताकतों को असहज कर देने वाले मौलिक प्रश्न उठा रहे थे। हो सकता है कि उनके विचारों से हमारी सहमति नहीं हो, लेकिन लोकतांत्रिक ढांचे में अगर असहमत स्वर को बंदूक के बल पर चुप करा दिया जाएगा तो स्पष्ट है कि लोकतंत्र की हत्या हो रही है और अराजक तत्त्व हावी हैं। यह घटना देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक चुनौती है। इन परिस्थितियों में कोई किस तरह अपनी बात खुलकर रखने का साहस जुटा सकता है! ऐसा माहौल आम लोगों के लिए एक चेतावनी है कि वे चुपचाप रहें नहीं तो कोई भी कहीं भी मारा जा सकता है!

सवाल खड़े करने वाले लोग हमेशा सत्ता और शासन की आंखों में खटकते रहे हैं। ये सवाल ही लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखते हैं। अगर असहमति और विरोध के स्वर नहीं हों तो शासन निरंकुश हो जाता है। इस तरह कट्टरपंथी ताकतों के हाथों एक के बाद एक बुद्धिजीवियों की हत्या और अपराधियों का कानून की गिरफ्त से बाहर रहना बहुत सारे सवाल खड़ा करता है। पहले भी ऐसी घटनाएं हुई हैं लेकिन जिस तरह की प्रतिक्रिया और त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए थी, उसमें साफ कमी दिखाई देती है। यह किस तरह की मानसिकता है जो विरोध की आवाज को कुचल देना चाहती है? इस मानसिकता के खिलाफ आम जनता को आगे आना होगा, तभी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाया जा सकेगा।

दोषी कौन
हमारा देश अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए विश्वविख्यात है लेकिन आसाराम और राम रहीम जैसे लोग हमारी संस्कृति को दागदार कर रहे हैं। हमें यह विचार करने की जरूरत है कि आखिर कैसे इस तरह के लोग इतने सक्षम और लोकप्रिय हो जाते हैं? कैसे इन राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों की तस्वीरें हमारे पूजा गृह तक पहुंच जाती हैं और हम इन्हें ईश्वर के समतुल्य स्थान दे देते हैं।  हम विज्ञान और तकनीक के उत्तरोत्तर विकास के दौर में हैं। आज विद्यालयों में बच्चे प्रोजेक्टर से पढाई कर रहे हैं; डिजिटल इंडिया का सपना लेकर हम आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन विकास की इस होड़ में विचारणीय बिंदु है कि क्या हम अपनी प्राचीन सभ्यता से भी पीछे तो नहीं जा रहे?

शायद हां, क्योंकि आज एक राज्य की राजनीति में बलात्कारी बाबा का जबर्दस्त प्रभाव रहता है। ऐसा इसलिए कि उसने जिस पार्टी को समर्थन दिया वह विजयी होकर सत्ता में आ गई। और जब बलात्कारी बाबा को सजा होती है तब उस पाखंडी की गिरफ्तारी के विरोध में दंगा होता है, आगजनी होती है, हिंसा होती है और तीन दर्जन से ज्यादा बेकसूरों की जान चली जाती है। सरकार बुत बन कर यह मंजर देखती रहती है और अपने स्पष्टीकरण में दावे से कहती है कि ‘जो किया ठीक किया, इस्तीफा नहीं देंगे।’
आखिर उन तीन दर्जन से ज्यादा बेकसूर व्यक्तियों की मौत का दोषी कौन है- पाखंडी बाबा, सरकार या हमारा अंधविश्वास?

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