अयोध्या में अब विवाद बचा क्या है?
अयोध्या में राममंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ध्वस्त हुए पच्चीस साल होने जा रहे हैं। इस बीच अदालतों में अलग-अलग मामले चलते रहे, फिर सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से सभी मामलों को एक साथ जोड़ कर विशेष अदालत में सुनवाई की प्रक्रिया शुरू हुई। पर अब भी यह तय नहीं हो पाया है कि विवादित जगह पर मंदिर बने, तो मस्जिद के लिए कहां स्थान हो। हालांकि इस बीच कई मुसलिम संगठनों ने भी सहमति जताई है कि विवादित स्थान पर मंदिर बनना चाहिए। वहां मस्जिद बनाने की दावेदारी में अब कोई दम नहीं रह गया है। फिलहाल अयोध्या विवाद में कितना दम है और उसके निपटारे में रुकावटें कहां आ रही हैं, बता रहे हैं
शीतला सिंह।
अ योध्या स्थित बाबरी मस्जिद का अस्तित्व तो विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी के कारसेवकों ने चौबीस साल पहले छह दिसंबर, 1992 को ही समाप्त कर दिया था। विवादित ढांचे को इस कदर तोड़ कर कि कोई उसके अवशेष या कि टूटी र्इंटें और पत्थर पाने में भी कोई समर्थ नहीं हुआ। इसके महीने भर बाद उसका स्थलीय अस्तित्व भी समाप्त हो गया था। तब, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने राष्ट्रपति को प्रस्ताव भेज कर उसका अधिग्रहण अध्यादेश जारी करा दिया था। इस आदेश के तहत न सिर्फ सारी विवादित भूमि, बल्कि उससे जुड़े हुए अन्य कई हिंदू स्थल भी अधिग्रहीत कर लिए गए थे, जिनमें राम चबूतरा, सीता रसोई और रामजन्म भूमि मंदिर आदि शामिल थे। तीन अप्रैल, 1993 को देश की संसद ने इस अध्यादेश की जगह सर्वसम्मति से अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून बना कर संबंधित व्यवस्था को स्थाई कर दिया था। अब हिंदू-मुसलमान में से कोई भी न तो वहां पूजा के लिए पहुंचता है और न अधिकार जताने के लिए ही। क्योंकि केंद्र सरकार ने उक्त अधिग्रहण कानून के अनुसार उस सारे इलाके को, जिसमें राज्य सरकार द्वारा अधिग्रहीत भूमि भी है, अपने कब्जे में लेकर फैजाबाद मंडल के आयुक्त को रिसीवर बना दिया है। इसे अदालत की स्वीकृति भी प्राप्त है।
अधिग्रहण के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने मुसलमानों के इस तर्क को भी खारिज कर दिया है कि बाबरी मस्जिद के उनकी आस्था और विश्वास से जुड़ा धार्मिक स्थल होने के कारण उसका अधिग्रहण असंवैधानिक है। लेकिन विडंबना देखिए कि जो मस्जिद अब अस्तित्व में ही नहीं है, कई शिया और सुन्नी नेता उसके वारिस और मुतवल्ली होने के दावे लिए चले आ रहे हैं, वे अपने को वक्फ बोर्डों के पदाधिकारी भी बताते हैं। लेकिन अधिग्रहण के वक्त सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ अपील के लिए उनमें कोई भी कोई सामने नहीं आया था। हम जानते हैं कि अधिग्रहण अधिनियम जहां संसद की इच्छा का परिचायक है, उसे वैध मानने का फैसला न्यायालय का है। अब मामले में पेंच सिर्फ इतना रह गया है कि अधिग्रहण कानून की धारा 4(2) के अनुसार उस वक्त चल रहे मुकदमे समाप्त करने के सरकार के तर्क को सर्वोच्च न्यायालय ने संविधानेतर माना था। फलस्वरूप स्वामित्व विवाद का विचाराधीन मामला फिर से मूल न्यायालय में वापस पहुंच गया और अब सर्वोच्च न्यायालय में उसकी सुनवाई विचाराधीन है। ऐसे में विधिक प्रश्न है कि क्या विवादित भूमि के अधिग्रहण के बाद भी उसका कोई वैध स्वामी शेष है? अगर नहीं तो उसके उत्तराधिकार का निर्धारण कहां से और किसके लिए होगा? मुतवल्ली किस मस्जिद के बनाए जाएंगे, जिसका अस्तित्व ही नहीं है?
वर्तमान स्थिति में बाबरी मस्जिद विवाद में केवल एक ही तत्त्व देखना है। यह कि उसका स्वामी किसे माना जाए? उसका कोई भी दावेदार यह नहीं कह रहा कि उसका अधिग्रहण समाप्त करके स्वामित्व सहित उसे वापस किया जाए। ऐसे में स्वामित्व का निर्धारण किसी के भी पक्ष में हो, उससे अधिग्रहण किस आधार पर निरर्थक होगा? उस पर तो पहले ही निर्णय हो चुका है। अब अधिग्रहीत भूमि पर कब, कहां, कैसे और क्या निर्माण होगा, यह तो उसका स्वामी केंद्र सरकार ही तय करेगी, जिसने संसद की इच्छा के अनुसार अधिग्रहण कानून बनाया हुआ है, जिसके आरंभ में ही बताया गया है कि उसका उद्देश्य लंबे समय से चल रहे सांप्रदायिक विवाद को समाप्त करना है। भावी दिशा के बारे में भी उसमें सब कुछ संवैधानिक सर्वधर्मसमभाव की भावना पर ही आधारित होने का जिक्र है। प्रसंगवश, अध्यादेश के समय राष्ट्रपति को सहमति के लिए भेजे गए गृहमंत्री के पत्र में ही स्पष्ट कर दिया गया था कि अध्रिगहीत की जा रही भूमि पर राम मंदिर, मस्जिद, पुस्तकालय-वाचनालय, संग्रहालय और यात्री सुविधाओं से जुड़े निर्माण कराए जाएंगे। यही अध्यादेश अब कानून बन गया है, जिसका किसी दल, पार्टी या सदस्य ने विपरीत राय देकर विरोध नहीं किया है। अब संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार तो उसमें परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन का अधिकार संसद को ही है।
जहां तक विवाद के पक्षों में समझौतों के प्रयासों का संबंध है, सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी आवश्यकता बताई है। लेकिन कोई भी समझौता वाद के पक्षकारों को करना है। बाहर के लोग उसमें इतने ही सहायक हो सकते हैं कि वे अपनी पसंद वाले पक्ष को वांछित या मनोनुकूल राय दे सकें। सवाल है कि ऐसे लोग, जो न तो विवाद में वादी हंै और न प्रतिवादी, क्या वे इस संबंध में कोई राय देने में सक्षम हैं या पक्षकारों को स्वीकार करने वाले हैं? ज्ञातव्य है कि अधिग्रहण के मामले की सुनवाई करने वाली सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने उसके उद्देश्यों की बाबत कोई विपरीत राय नहीं व्यक्त की है और उसका इतना ही परामर्श है कि स्वामित्व अधिकार के विवाद में जो पक्ष जीते, उसे अधिग्रहीत भूमि का मुख्य भाग और हारने वाले को गौण भाग देना चाहिए। 24 अगस्त, 1994 में हुए इस फैसले के खिलाफ कोई भी पक्ष पुनर्विचार की याचना करने सर्वोच्च न्यायालय नहीं गया। जाता भी तो उसकी सुनवाई अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ी संविधान पीठ द्वारा ही संभव थी, क्योंकि यह फैसला ही पांच जजों की पीठ का है।
इन दिनों समाचार पत्रों और संवाद माध्यमों में प्राय: प्रतिदिन इस संबंधी प्रश्न तर्क, उपाय और इच्छाएं व्यक्त की या सामने लाई जा रही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि अमुक की बात मानेंगे अमुक की नहीं। लेकिन इन सबकी सुनवाई आखिर कहां और किस मामले में होनी है? यह सारे संदर्भ किस न्यायालय में उठेंगे? अभी तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित स्थल को लेकर किसी पक्षकार की मांग के बगैर ही उसको तीन भांगों में बांटने का जो फैसला सुनाया था, उसी को लेकर सवाल हैं कि वह न्यायालय की इच्छा का परिणाम था या विवाद के किसी मुद्दे का निर्णय? ऐसे में समझौते के जो कथित अभियान संवाद माध्यमों में चल रहा है, क्या वे मामले के निर्णायक अंग हो सकते हैं? जो लोग खुद को बाबरी मस्जिद और मुगलवंश के वारिस बता कर अपने तर्इं बहती गंगा में हाथ धोने को आतुर हैं, किसी से छिपा नहीं कि वे किन्हें प्रसन्न करने का माध्यम बन रहे हैं। बहरहाल, इस संदर्भ में रामलला विराजमान का अस्तित्व भी अदालती निर्णयों पर ही आधारित है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले के सारे निर्णयों को अस्वीकार कर दिया है, इसलिए उनकी निर्णायक शक्ति भी समाप्त हो गई है। अब स्वामित्व विवाद किसी के भी पक्ष में निर्णीत हो, उससे अधिग्रहीत क्षेत्र तो मुक्त नहीं होने वाला, क्योंकि अधिग्रहण से मुक्ति का प्रश्न तो किसी तरफ से उठाया ही नहीं गया है। सर्वोच्च न्यायालय सिर्फ उच्च न्यायालय के फैसले के औचित्य की सुनवाई कर रहा है। क्या अपीलीय न्यायालय में विचार के लिए नए प्रसंग भी शामिल किए जा सकते हैं? किए भी जा सकते हों तो अभी तक ऐसी कोई इच्छा किसी पक्ष से आई ही नहीं है। अब चूंकि आम चुनाव के दिन नजदीक आ रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विवाद की सुनवाई की तिथि भी निर्धारित हो गई है, इसलिए लगता है कि तमाम नए कथित पक्षकार लाभ उठाने या पहुंचाने के लिए उमड़ पड़े हैं। निश्चित रूप से यह वातावरण बनाने या कलुषित करने में भागीदार हो सकते हैं, लेकिन वे जो कुछ भी कहें या करेंगे, वह न्यायालय का प्रश्न कैसे बनेगा? अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून संसद का बनाया हुआ है और चूंकि सत्तारूढ़ दल के पास उसमें बहुमत है, वह उसमें संविधानोचित परिवर्तन कर सकता है। लेकिन उसके द्वारा किए गए परिवर्तन कितने उचित या अनुचित हैं, यह तय करने का न्यायिक विवेक तो न्यायालय के पास ही है।
सवाल है कि जब तक न्यायालय का फैसला नहीं हो जाता, तब तक ऐसा समाधान कैसे ढूंढ़ा जाएगा, जो संवैधानिक परिधि में आए? संविधान की उन धाराओं में, जो इसमें बाधक बन रही हैं, ऐसा कौन-सा संशोधन किया जाएगा, जो न्यायिक व्याख्या, अवधारणा और विवेक के विरुद्ध न हो? यकीनन, यह मामला देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इसे लेकर प्रचारित हो रहे नाना विचार उसके समाधान में कितने सहायक या मददगार होंगे?