ब्रह्मपुत्र का महागायक
अजयेंद्रनाथ त्रिवेदी
गुवाहाटी विश्वविद्यालय के पहले भवन का उद्घाटन करने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद 21 फरवरी, 1956 को पधारे थे। कार्यक्रम के आरंभ में भूपेन हजारिका ने खासतौर से इस मौके के लिए लिखा अपना गीत गाया- ‘जिलिकाबो लुइतरे पार/ अंधारर भेटा भांगी प्राग्ज्योतिषत बय जेउती निजरारे धार/ शत-शत बंतिरे ज्ञानरे दिपालिए जिलिकाबो लुइतर पार…।’ बाद में यही गीत गुवाहाटी विश्वविद्यालय का कुलगीत बना। इन शब्दों के साथ एक कलाकार लुइत (ब्रह्मपुत्र) के तट पर जिलिकाने (जगमगाने) की अपनी अदम्य इच्छा प्रकट कर रहा था। समय ने सिद्ध कर दिया कि अनादि काल से प्रवाहमान ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर जिन महापुरुषों की गूंज आज भी है, उन महापुरुषों की नक्षत्रमाला में भूपेन हजारिका एक अलग आभा से दीप्त हैं। तभी तो इस सदी के आरंभ में जब एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक ने अपने रंगाली बिहु विशेषांक के लिए दस महानतम असमिया सपूतों पर फीचर किया, तो उनमें एकमात्र जीवित किंवदंती थे- भूपेन हजारिका।
दुनिया की कुल आबादी के मात्र 0.3 प्रतिशत लोग जिस भाषा का व्यवहार करते हैं, उस असमिया भाषा की एक प्रतिभा का पूरे विश्व में इस प्रकार समादृत हो जाना किसी चमत्कार से कम है क्या! पर यह चमत्कार नहीं, वरन भूपेन हजारिका की लोक पक्षधरता, संगीत साधना और अलौकिक स्वर-सिद्धि का स्वाभाविक परिणाम था। उनके मानुषभाव से परिचित कोई भी व्यक्ति इस प्रसिद्धि को चमत्कार नहीं मानता। क्योंकि उसे पता है कि अपनी भूमि, अपने परिवेश और अपनी विरासत को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने में समर्थ कोई व्यक्ति ही भूपेन हजारिका हो सकता है।
भूपेन हजारिका की बहुमुखी प्रतिभा में एक गीतकार, संगीतकार और गायक अपनी समस्त सर्जनात्मकता के साथ प्रतिष्ठित है। कला उनके लिए विमुक्ति का मार्ग है। शोषण, अन्याय, एकाकीपन, अजनबीपन आदि से अपने और अपने जन की विमुक्ति की राह उन्होंने संगीत में खोजी। उनके गीतों में उनका लोक उपस्थित है अपनी आकांक्षाओं के साथ, अपनी पीड़ाओं को लिए, अपने प्रेम में जीते हुए, अपने आक्रोश में तपते हुए। लोक के उत्सव और उनके उच्छल भाव भी उनके गीतों में अमर हो गए हैं। पूर्वोत्तर भारत का प्राकृतिक परिवेश उनके गीतों में मुखर है। शिलांग की ऊंघती गोधूलि हो या घाटी की जगमगाती विभावरी, गौरीपुर की गाभरू (सुंदरी) हो या मदनपुर चाय बागीचे की मजदूरिनें, भूपेन हजारिका की काव्यदृष्टि से वे ओझल नहीं रहीं। भूपेन हजारिका का मानववादी दृष्टिकोण उनके समस्त व्यक्तित्व और कृतित्व में व्यक्त है। सभी कलाएं मानव को उदत्त भावभूमि पर प्रतिष्ठित करके ही सार्थक होती हैं। अपने गीतों के माध्यम से भूपेन हजारिका ने मानवता को प्रतिष्ठित करने का अभियान चलाया। ‘मानुहेमानुहर बाबे’ (मनुष्य मनुष्य के लिए ही है) शीर्षक गीत इसका उदाहरण है।
ब्रह्मपुत्र नदी तो उनकी सर्जनशीलता पर चंदोवे की तरह आदि से अंत तक तना हुआ ही है। उनके जीवन के विभिन्न कालखंड ब्रह्मपुत्र के तटीय नगरों में बीते। इनका जन्म आठ सितंबर, 1926 को आदि जनजाति बहुल स्थान सदिया में हुआ। पिता नीलकंठ हजारिका सरकारी सेवा में थे। तबादले होते रहे और पिता के साथ भूपेन शहर-शहर गए। उनका बचपन बीता अपने ननिहाल में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे गुवाहाटी में। स्कूली शिक्षा मिली धुबरी में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे स्थित सरकारी विद्यालय में। फिर वे तेजपुर गए ब्रहमपुत्र के तटीय नगर में। तेजपुर में उन्हें असमिया साहित्य, नाट्य, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों के शलाका पुरुषों का सामीप्य मिला। उनकी कला कमल की भांति खिल उठी। तेजपुर के दिनों का स्मरण करते हुए भूपेन हजारिका ने कहा है, ‘मोर जीवोन आरम्भ होइ गोल।’ अंत में उनकी समाधि भी ब्रह्मपुत्र के तट पर बनी गुवाहाटी में।
ब्रह्मपुत्र के प्रति उनका प्रेम लगातार प्रगाढ़ होता गया। उन्होंने कहीं कहा भी है- लुइत मेरे गीतों की मां है। ब्रह्मपुत्र का विशाल वक्ष, उस पर दिलेर नावरियों का नौकायन और उनका मत्याखेट कवि का स्थायी आकर्षण रहा। एक गीत में उन्होंने ब्रह्मपुत्र को महामिलन का तीर्थ कहा है- ‘ब्रह्मपुत्र, महाबाहु, महामिलनर तीर्थ/ कत जुग धरि आहिसे प्रकाशि समन्वयर अर्थ’। एक अन्य गीत में उन्होंने ब्रह्मपुत्र से प्रार्थना की है कि वह सभी जीर्ण पुरातन को निशेष कर नूतन चित्रपट रचे। अनेक भाषाओं में अनूदित और बहुप्रसंशित उनका वह असमिया गीत है: ‘विस्तीर्ण दुपारेर अशंख मानुषेर हाहाकार सुनेऊ/ निशब्द निरबे बुड़ा लुइत तुमि, बुरा लुइत बोआ किय?/ नैतिकतार स्लखलन देखिउ/ मानवतार पतन देखिउ/ निर्लज्ज अलख भाबे बोआ किय?’ भूपेन हजारिका के आचरण और लेखन दोनों ही में सामाजिक चेतना और समकालीनता का बोध मिलता है। संत्रस्त लोकजीवन की पीड़ा को उन्होंने अपने गीतों में बार-बार, विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। एक पारंपरिक गीत ‘डोला, हे डोला’ को उन्होंने नए संदर्भ में लिखा और गाया। इसमें डोला लेकर चलने वाले कहारों की पीड़ा प्रत्य्क्ष हो आती है।
भूपेन हजारिका 1952 में समुद्र मार्ग से अमरीका होकर भारत लौट रहे थे। रास्ते में अटलांटिक महासागर की विराटता को देख उनका भावुक हृदय स्तब्ध रह गया। उन्होंने लिखा: ‘सागर संगमत कतनो सतारिलु तथापि हुआ नहीं क्लांत।/ तथापि मनत मोर अशांत सागरत उर्मिमला अशांत/ सागर संगमत…।’ 1956 में ‘एरा बाटर सुर’ नामक एक असमिया फिल्म बनी। इसमें यह गीत लिया गया। यह गीत भूपेन हजारिकी की वर्णन क्षमता, कल्पनाशीलता और सर्जनात्मकता का अनुपम निर्देशन है। गीतकार के रूप में क्लांत, अशांत, प्रशांत निष्ठुरगात, अविश्रांत जैसे तत्सम पदों का प्रयोग करके भूपेन हजारिका ने असमिया कंठ से जब यह गीत गाया तो भाव साकार हो उठा, व्यंजना मूर्तिमान हो उठी। एक गीत में भूपेन हजारिका ने अपने को एक यायावर कहा है- ‘मइ एटि जाजाबर’। इस गीत में उनकी विश्वदृष्टि मुखर हुई है। विश्व की संस्कृतियों के बीच विद्यमान एकता के सूत्र, वैभव के बीच सिसकता अभाव, सीमाओं को अतिक्रांत करने की उद्दाम लालसा इस गीत में प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हुई है।
प्रकृति-सौंदर्य के प्रति उन्मुख उनके गीतों में कंहुआ बन नामक गीत का उल्लेख यहां समीचीन है। कंहुआ (कास) विकसित होकर शरद ऋतु के आगमन की सूचना देते हैं। वन प्रांतर में, नदी-नालों के किनारे, अनुर्वर भूमि पर कास-समूह उगते हैं। कास की शोभा का वर्णन करते हुए भूपेन हजारिका कहते हैं: हे कास वन! मेरा मन अशांत है। अपने कोमल हाथों से पकड़ कर तुम मुझे गले लगा लो। सुधाकंठ की उपाधि से विभूषित भूपेन हजारिका सुमधुर कंठ के स्वामी, भावप्रवण गीतकार, संवेदनशील संगीतकार और विलक्षण फिल्म निर्देशक थे। उनकी विरासत को देख कर बस यही कहा जा सकता है कि अपनी बहुदेशिक क्षमताओं के उत्तुंग मानदंड भी वे स्वयं ही थे। एक फिल्मकार के रूप में असमिया फिल्म को अंगुली पकड़ कर उन्होंने कैशोर्य से प्रौढ़ता की ओर बढ़ाया। इससे देश-विदेश में असमिया फिल्म की पहचान बनी। आकाशवाणी से उनका गायन 1937 में तब प्रसारित हुआ जब वे मात्र ग्यारह साल के थे। असमिया के अलावा उन्होंने हिंदी और बांग्ला भाषा में भी गीत गाए। उनके द्वारा निर्देशित पुरस्कार प्राप्त हिंदी फिल्मों में ‘एक पल’ और ‘रुदाली’ प्रमुख हैं। उनकी असमिया फिल्मों में सदाबहार फिल्म ‘चमेली मेम साहब’ प्रमुख है।
कॉटन कालेज, गुवाहाटी और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई करके वे शोध कार्य के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क गए। उन्होंने राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर और मास कम्युनिकेशन में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। सिनेमा को उनके समग्र के योगदान के लिए भारत सरकार ने 1993 का दादा साहब फालके पुरस्कार दिया। साहित्य के प्रति उनके अवदान का सम्मान करते हुए असम साहित्य सभा ने सभापति के रूप में उनका वरण किया। असम सरकार ने अपना सर्वोच्च सम्मान ‘श्रीमंत शंकरदेव बंटा’ उन्हें प्रदान किया। उन्हें बांगलादेश ने अपना सर्वोच नागरिक सम्मान मुक्तिजोधा पद्र प्रदान किया। पर यहां हम निस्संकोच कह सकते हैं कि ये सारे पदक और सम्मान तब फीके लगते हैं जब कोटि-कोटि जनगण के मन में उनके लिए विद्यमान अपार श्रद्धा का विचार हम करते हैं। दिनांक 5 नवंबर, 2011 को मुंबई में जब उन्होंने आखिरी सांस ली, तब देश के सांस्कृतिक क्षितिज की चमक मद्धिम पड़ गई।