मौत का गेम

जानलेवा ब्लू ह्वेल गेम, जिसका कि दूसरा नाम ब्लू ह्वेल चैलेंज भी है, ने आखिरकार एक और बच्चे को अपना शिकार बना लिया। हरियाणा के पंचकूला में सोलह साल के दसवीं के एक छात्र ने इस हत्यारे खेल के चक्कर में फंस कर शनिवार को पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली। इसी साल अगस्त में इंदौर में तेरह साल के एक छात्र ने तीसरी मंजिल से छलांग कर इस गेम की वजह से खुदकशी करने की कोशिश की थी। कुछ दिनों पहले भारत में इस खेल के चक्कर में मौत को गले लगाने वाली पहली घटना मुंबई में देखी गई। मुंबई के अंधेरी इलाके में चौदह साल के बच्चे ने पांचवीं मंजिल से कूद कर खुदकशी कर ली थी।
तकरीबन दो दर्जन ऐसे देश हैं, जहां इस खेल में बच्चे शिकार हुए हैं या हो रहे हैं। यह कितना विचित्र है कि दुनिया भर में एक आॅनलाइन गेम बच्चों की जान ले रहा है और विशेषज्ञ कोई रोक नहीं लगा पा रहे हैं। गेम के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है, उसके हिसाब से इसे रूस में पढ़ाई-लिखाई में नाकाम एक छात्र फिलिप बुदीकन ने बनाया था, जिसका मानना है कि समाज में तमाम लोग जैविक कचरा बन चुके हैं, जिनकी सफाई नितांत आवश्यक है।

इस खेल के उकसावे में आकर रूस में सोलह नाबालिग लड़कियों ने एक-एक कर जब आत्महत्या कर ली, तब धीरे-धीरे इस रहस्य पर से परदा उठा। रूस की अदालत ने इस खेल के आविष्कारक को सजा सुनाई और फिलहाल वह जेल में बंद है। उसका दावा है कि इस खेल को उसने 2013 में ही खोज लिया था। वह कहता है कि वह ऐसे लोगों को खुदकुशी के मुंह में ठेलना चाहता है जिनकी जरूरत समाज को नहीं है, और जो अपनी मूल्यवत्ता खो चुके हैं। सोचने वाली बात है कि एक व्यक्ति के सनकीपन या वहशी इरादे उस समय कितने विनाशकारी हो जाते हैं, जब वह उसे किसी तकनीकी में ढाल देता है।

आविष्कारों को लेकर वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों और मानवतावादियों में बहसें होती रही हैं। लेकिन किसी भी ऐसी खोज को कैसे समर्थन दिया जा सकता है, जिसका मकसद ही इतना खतरनाक हो? यह वैज्ञानिक खोज की स्वायत्तता से ज्यादा नैतिकता से जुड़ा सवाल है। आज जो हालत इस खेल ने कर दी है उसके लिए जरूरी है कि साइबर विशेषज्ञ, आइटी विशेषज्ञ इस पर रोक लगाने के उपाय तलाशें। आखिर यह इंटरनेट पर इतनी आसानी से कैसे उपलब्ध है कि कोई भी बच्चा जब चाहे तब इसे आजमाना शुरू कर देता है और फिर वह एक ऐसी बंद गली फंस जाता है, जिसका दरवाजा सिर्फ मौत के कुएं में खुलता हो। यह कहना उचित नहीं है कि बच्चे आजकल इंटरनेट पर ज्यादा उलझे रहते हैं और वे अकेलेपन या अवसाद के शिकार हैं, इसलिए अक्सर ऐसे खेलों में फंस जाते हैं। इंटरनेट की उपलब्धता और उपयोगिता से आंखें मूंदना अब संभव नहीं है। जो चीज संभव है, वह यह कि आॅनलाइन ऐसी खतरनाक सामग्री की उपलब्धता खत्म की जाए। हम तो यही कामना करेंगे कि अब फिर कोई ‘बुरी खबर’ इस सिलसिले में न सुनाई दे।

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