घृणाभाषा बनाम रचनात्मक भाषा
एक हैं ‘एंटीफा’। दूसरे हैं ‘प्रोफा’ या ‘नियोनाजी’! ‘एंटीफा’ यानी ‘एंटी फासिस्ट’ या ‘फासिस्ट विरोधी समूह’ और ‘प्रोफा’ यानी ‘प्रोफासिस्ट’ या ‘नियोनाजी समूह’! ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिका में ‘प्रोफाओं’ का हौसला बढ़ा है। वे अमेरिका को एक ‘बहुलतावादी राष्ट्र’ की तरह नहीं देखते बल्कि उसे ‘ठीक कर’ उस पर ‘गोरी जाति’ का एकछत्र आधिपत्य चाहते हैं। वे गोरों को श्रेष्ठ और सर्वोपरि मानते हैं। जिस तरह कभी हिटलर ने जर्मनों की ‘आर्यंस’ की श्रेष्ठता का दावा किया था और नस्ली श्रेष्ठता का भाव भरकर उनको विश्व पर शासन करने वाली श्रेष्ठ नस्ल का कहा था, उसी तरह का भाव ‘प्रोफाओं’ में है। पिछले दिनों अमेरिका के एक शहर में गोरे श्रेष्ठतावादियों ने एक बड़ी उग्र रैली की। ‘एंटीफा’ वालों ने उनके खिलाफ उनकी भाषा में ही प्रदर्शन किया। टकराव हुआ। एक एंटीफा वाला मारा गया। ‘एंटीफाओं’ का मानना है कि ‘प्रोफाओं’ के खिलाफ हिंसा का उपयोग जायज है। हम चाहते हैं कि गोरे नस्लवादियों और नव-नाजियों को ‘पब्लिक फोरम’ न मिले। ये मानते हैं कि जहां ‘प्रोफा’ जाएंगे, वहां मुकाबले के लिए हम भी जाएंगे। ‘प्रोफाओं’ की घृणा भाषा कोई ‘आजाद’ भाषा नहीं होती। हम उनसे पंगा लेने के लिए हर जगह जाएंगे क्योंकि हम नहीं चाहते कि प्रोफाओं या नव-नाजियों को अभिव्यक्ति का कोई माध्यम मिले। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। यूरोप में ऐसे ‘एंटीफा’ समूह सन अस्सी के बाद के दिनों में दिखने लगे थे। ऐसे समूह हिटलर की जर्मनी या मुसोलिनी की इटली में भी बने और इसी तरह के काम करते रहे। उनकी भाषा भी ‘फासिस्टिक’ रही। लेकिन वे फासिज्म को हटाने में कामयाब नहीं हुए!
फासिज्म की प्रतिक्रिया में ‘एंटी फासिज्म’ का भाव पैदा होता ही है और इसका सिर्फ वही संस्करण नहीं है जो इन दिनों अमेरिका में दिख रहा है लेकिन मीडिया इसी को सबसे बडेÞ ‘एंटीफासिस्ट’ भाव के रूप में बनाता और दिखाता है। ‘फासिज्म’ का शब्दार्थ ही है ‘डंडा-शासन’! इसके मूल में गहरी घृणा और हिंसा सक्रिय रहती है। यह सर्वत्र जनतंत्र का लाभ उठाकर सत्ता में आता है और फिर अपनी सत्ता को घृणा और हिंसा से संचालित करता है और एक घृणाजीवी समाज बनाता है। हम जानते हैं कि एक अमेरिका अपने यहां भी बनता रहता है। अपने यहां भी इस्लामी श्रेष्ठतावादियों के कंपटीशन में हिंदू श्रेष्ठतावादी सक्रिय हैं और जिस घृणाभाषा को वे रचते हैं, वह उतनी ही तीखी घृणाभाषा को जन्म देकर घृणा को एकमात्र सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य की तरह स्थापित करती रहती है। घृणामूलक सत्ता नाना प्रकार के जिघांसामूलक सांस्कृतिक सामाजिक विमर्शों को कुछ इस तरह सक्रिय करती है कि अंतत: शिकार ही अपराधी ठहरा दिया जाता है। घृणावादी विमर्श ऐसा घटाटोप बनाता है कि अपने मुकाबले वह किसी भी उदारतावादी नागरिक या मानवीय विमर्श को पनपने का अवसर नहीं देता।
सतत दादागीरी और पब्लिक स्पेस पर अपना कब्जा कर वह ऐसी स्थिति पैदा करता है कि प्रतिक्रिया में अगर कुछ बने तो घृणामूलक ही बने और इस तरह कोई भी प्रतिरोधी विमर्श घृणामलूक सत्ता की परिधि में ही खेलता रहे और सत्ता कह सके- देखो, वह भी तो घृणावादी भाषा बना रहा है। अगर कुछ तत्त्व घृणा का कारोबार करते हैं तो आप भी तो करते हैं। हमारे पापुलर विमर्शों में इस तरह ‘घृणा’ ही जीतती रहती है। ‘फासिज्म’ का यही भाव अपनी एक पापुलर कल्चर बनाता है। घृणा, बदला, प्रतिशोध और हिंसा क्रमिक तरीके से जगने वाले ऐसे तिक्त-कटु भाव होते हैं जो कमजोर व्यक्ति को सर्वाधिकआकृष्ट करते हैं। इसे फिल्मों में और मॉब लिंचिंग के वहशी आचरणों में देखा जा सकता है, जिसे सत्ता ने वंचित किया होता है वह इन घृणामूलक भावों को वितरित करके कमजोर को तुरंत न्याय पाने यानी बदला लेने की तसल्ली देती है। आम आदमी के लिए जिंदगी तीन घंटे की एक्शन फिल्म बन जाती है जिसमें अत्याचारों का शिकार बना नायक अंत में बदला लेकर रहता है।
फासिज्म की यही भाषा सबकी भाषा बन जाती है और इस कदर व्याप जाती है कि उससे नागरिक भाषा को अलहदा करना मुश्किल होता है। घृणा की भाषा के प्रतिरोध में हम आसानी से घृणा की प्रतिभाषा के शिकार बन जाते हैं। ऐसी प्रतिभाषा तुरंता तसल्ली तो दे सकती है लेकिन न्याय नहीं दे सकती क्योंकि वह प्रतिघृणा के रूप में आकर पूर्ववर्ती घृणा को और मजबूत करती है। हमारे कथित उदारतावादी विमर्श इन दिनों इसी प्रति-घृणाभाषा के शिकार बन रहे हैं। पिछले दिनों कई नामी लोगों के द्वारा सोशल मीडिया में जिस तरह की घृणाभाषा का निर्माण किया गया उसने पूर्वनिर्मित घृणाभाषा को वैधता ही दी है। शायद यह उदारतावादी विमर्शों की अपने प्रति बढ़ती ऊब या अनास्था है या कि घृणावादी भाषा के आगे बार-बार की हार ने उदारतावादी चित्त को थका दिया है या कि पहले वाला न्याय न पाकर उसमें एक खिसियाहट सी भर गई है कि खूब पढ़े-लिखे कथित उदार लोग तक प्रतिघृणा के शिकार होने लगे हैं। इस भाषा से तुरंता ताली और मन को तसल्ली शायद मिल सकती हो लेकिन इससे घृणामूलक सत्ता और फासिस्टिक प्रवृत्तियों और शक्तियों को ताकत और वैधता ही मिलती है।
घृणा का आदान-प्रदान घृणा का बड़ा मार्केट बनाता है और उसे ही उपभोग्य बनाता है। हम प्रेम के कोमल भाव, परस्परता, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता की जगह ‘बदले’ के भाव का उपभोग करने लगते हैं। यही होता दिख रहा है। उदारतावाद अपना धीरज खो रहा है। अव्वल तो यही तय नहीं कि ट्रंप की सत्ता का मतलब अमेरिका में फासिज्म का आना है या नहीं? इसी तरह हमारे समाज में भी यह तय नहीं हो पा रहा है कि हम इन दिनों ‘पूर्ण फासिज्म’ में रहते हैं कि ‘अर्द्ध फासिज्म’ में रहते हैं या ‘कमजोर जनतंत्रा’ में रहते हैं? समकालीन फासिस्टिक विमर्शों की यह तरलता है। ऐसी तरलता हिटलर की जर्मनी या मुसोलिनी की इटली या फ्रेंकों के स्पेन में नहीं रही। वहां वह पहले दिन से ही खेल साफ था!
अपने यहां हावी फासिस्टिक मनोवृत्तियों में एक नए प्रकार की तरलता और फैलाव है जिसे किसी एक सरल सूत्र से समझा नहीं जा सकता। राजसत्ता तो अब भी कानून की कायल है। देश में संसदीय प्रणाली है और अब भी संविधान सर्वोपरि है लेकिन सड़क पर, गली मुहल्लों में नाना प्रकार की फासीवादी मनोवृत्तियों का, संगठनों का, वर्चस्व बढ़ रहा है। राज्यसत्ता कानून से भले ही काम करती हो लेकिन सड़क पर ऐसे हिंसक समूहों का ही ‘शासन’ दिखलाई पड़ता है। यह एक अंतर्विरोधी प्रक्रिया है जिसके नतीजे अभी ‘अनिर्वचनीय’ ही कहे जा सकते हैं। हां एक ‘नई आदत’ डाली जा रही है। इसे ‘कंडीशंड रिफलेक्स’ कहते हैं। इसके सिद्धांतकार रूसी मनोवैज्ञानिक पावलोव थे। उनका यह सिद्धांत बताता है कि एक जैसी स्थितियां पैदा करके प्राणी में एक जैसे आचरण की आदत डाली जा सकती है। आज घृणा के साथ जीने की आदत डाली जा रही है। फासिज्म यही करता है। वह अपने विरोधी की ‘आदत’ भी बनाता है। आप आदत के शिकार होकर उसका उपभोग करने लगते हैं जबकि आप समझते हैं कि आप उससे लड़ रहे हैं।
निरकुंशता या अर्ध-फासिज्म या फासिज्म सबसे पहले उदारतावादी भाषा को बेकार कर, भाषा को गैररचनात्मक बनाता है, इसीलिए जिन समाजों में निरंकुशता या फासिज्म का वातावरण लंबे अरसे तक रहा है वहां रचनाकारों ने अपनी भाषा को बदल कर ही उसका प्रतिकार किया है। उदाहरण के लिए, हिटलर के उभार के दिनों में जर्मनी में ट्रेड यूनियनों के पक्ष में ‘स्ट्रीट थियेटर’ करने वाले इरविन पिसकाटर के नाटकों की भाषा में दो टूक प्रतिरोधी संदेश हुआ करते थे। हिटलर के ‘एसएस’ पुलिस आकर उनकी मंडली पर हमला करते थी। दबाव में आकर इरविन पिसकाटर प्रो-हिटलर हो गया और बाद में और भी दयनीय बन गया जबकि बर्ताल्त ब्रेख्त ने नाटक की नई भाषा और शैली ईजाद की जिसमें तिरछी व्यंग्योक्तियां होतीं। भागना तो ब्रेख्त को भी पड़ा लेकिन उनकी भाषा शैली अधिक कारगर रही। ‘एंटीफा’, अगर ‘प्रोफा’ यानी गोरे श्रेष्ठतावादियों की भाषा में ही प्रतिरोध करेंगे तो गोरे श्रेष्ठतावादियों के अखाडेÞ में ही खेत रहेंगे। अगर अपने यहां हावी हो रहे हिंदू श्रेष्ठतावादियों से वैचारिक संघर्ष करना है तो उदारतावादियों को गाली की भाषा छोड़ कर अपनी नई रचनात्मक भाषा ईजाद करनी होगी!