भविष्य तलाशती नौटंकी
नौटंकी हमारे देश की प्राचीन लोक कलाओं में शुमार है। ग्रामीण संस्कृति में यह न सिर्फ मनोरंजन, बल्कि अनेक ज्वलंत समस्याओं को उजागर करने का सशक्त माध्यम भी रही है। नौटंकी से प्रेरणा लेकर हिंदी फिल्मों ने अनेक प्रयोग किए। रंगमंच के लिए नौटंकी के कलाकार कई रूपों में चुनौती पेश करते रहे हैं। मगर संचार माध्यमों और मनोरंजन के आधुनिक संसाधनों के विकास के चलते आज नौटंकी का अस्तित्व संकट में नजर आने लगा है।ं हालांकि रंगमंच से जुड़े लोगों का मानना है कि नौटंकी में अद्भुत ताकत है, जिसके चलते वह कभी मर नहीं सकती। नौटंकी कला की स्थिति और उसके भविष्य को लेकर विश्लेषण प्रस्तुत कर रही हैं त्रिपुरारि शर्मा।
कभी ड्योढ़ी पर तख्त बिछा कर, संवाद और गायकी के मिलेजुले अंदाज में बात कह दी जाती थी। फिर मेले के मंच से, लाइट और पर्दों के बीच से अभिनेता ने दर्शकों को मुग्ध किया। स्त्री ने भी इस मंच पर स्थान पाया। इस लंबी यात्रा में नौटंकी ने कई तेवर बदले। आज भी नक्कारे की टंकार से खलिहान हिल उठते हैं, पर कला और कलाकार कुछ मायूस हैं। नई पीढ़ी और उसके नएपन की भी प्रतीक्षा है।
‘बच्चों को हम सिखा सकते हैं, सिखा भी रहे हैं अपने स्तर पर, लेकिन इसके बाद आगे फिर क्या?’ पीलीभीत से राधा रानी का यह कहना है। नौटंकी मंच की सशक्त अभिनेत्री का यह प्रश्न समाज से है। कलाकार अपनी कला में महारत हासिल कर सकता है, पर उस कला को अनुकूल मंच प्रदान करने का दायित्व दूसरों के हाथ में है। कृष्णा माथुर ने बच्चों के साथ नौटंकी शैली में ‘ईदगाह’ को प्रस्तुत किया, जिससे नई पीढ़ी इस शैली से अवगत हो सके।
एकाध बार और कोशिश करने के बाद, वे अब लाल फीताशाही के दांव-पेच से हताश हो चुकी हैं। ग्रांट की आखिरी किश्त बाकी है, ‘पर समझ में नहीं आता, किससे कहें, कहां बात करें- कोई फोन नहीं उठाता। कुछ कहता नहीं है।…’ वह परेशान भाव से कहती हैं। यह शिकायत भी नहीं; बताना भर है।
नौटंकी के बहुत से वरिष्ठ कलाकार तो कागज भरने से ही आतंकित होकर, कई योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते। इसका यह अर्थ नहीं कि वे अपनी कला के प्रति उदासीन या लापरवाह हैं। उनकी गायकी में जिस तरह का विस्तार है, वह प्रतिभा और रियाज से ही रूप पा सकता है। हर संभव रस भावना, अनुभव और द्वंद्व को व्यक्त करने की क्षमता इस गायकी में विद्यमान है। जिस अंचल से इस कला का उद्गम हुआ है, वहां की बेचैनी केवल नक्कारे की टनक में नहीं झलकती, बल्कि पात्रों के आवेश में भी उसकी गुंजन है- भले ही वह तारामती की पीड़ा हो या मजनूं का बौखलाया हुआ प्यार। गायक अभिनेता इन अवस्थाओं को उभारते हैं और उन्हें दर्शकों तक पहुंचाते हैं।
वरिष्ठ कलाकारों में से कुछ ऐसे हैं, जिन्होंने अखाड़ों के रहते, वहां से तालीम पाई थी। बाद की पीढ़ी ने मंच पर सक्रिय अभिनेताओं को देख-देख कर सीखा। अपने से तैयारी की और फिर किसी मंडली से जा जुड़े। वे साक्षर हों या नहीं, उन्हें खेल कंठस्थ हैं। अवसर पाते ही, वे चरित्र निर्वाह के लिए तैयार हो जाते हैं।
फिर, यमुना का किनारा हो या मेले का मैदान या स्कूल का प्रांगण, इन कलाकारों का मंच पर प्रवेश होते ही उनकी ऊर्जा के सरारे दमक उठते हैं। स्पष्ट है कि यह एक ऐसी विद्या है, जिसमें कलाकार की सांस और उसका पसीना, दोनों बोलते हैं। यह उस माटी की उपज है, जहां तन की मेहनत जीवन का सत्य है। जेहन की चुप्पी मंच पर दहाड़ उठती है। इसकी वंदना में राम और रहीम दोनों का स्मरण है, गंगा जमुना संस्कृति की कई बोलियों का मिश्रण है। कथानक में मूल मानवीय द्वंद्व केंद्रित है। अगर ‘अमर सिंह राठौर’ में धर्म और परिवार की सीमा पार के संबंधों की ताकत को दर्शाया गया है, तो ‘सत्य हरीशचंद्र’ में राजा से रंक हो जाने की यात्रा का वर्णन है। दृढ़ता और वेदना, भावना के विशेष बिंदु हैं तो ईमान और बहादुरी चरित्र के। कटुता, ईर्ष्या और वैमनष्य इसके विलोम आकार हैं। मनोरंजन के साथ-साथ, समाज में इन मूल्यों को लेकर आत्म निरीक्षण का सिलसिला चलता रहे- शायद यह भी इसका उद्देश्य हो सकता है।
समय अनुकूल न पाकर बहुत सारी मंडलियां आज नौटंकी के बोर्ड तले मात्र नाच-गाना कर पा रही हैं। जिस नौटंकी का संगीत बॉलीवुड की पॉपुलर धुनों का आधार रहा है, आज उसी पर ‘फिल्मी’ हो जाने का आरोप थोपा जा रहा है। नौटंकी में मनोरंजन से परहेज नहीं है, पर फूहड़पन उसकी मूल आत्मा नहीं है। अगर नौटंकी की यही पहचान बनती जा रही है, तो निश्चित रूप से इस पर विचार होना चाहिए, क्योंकि ऐसा न हो कि मंच पर ही नौटंकी लुप्त हो जाए!
‘वैसे नौटंकी अपनी तरह से चल रही है’, इलाहाबाद के अतुल यदुवंशी कहते हैं, ‘यहां आसपास बीस ब्लॉक में एक सौ तेईस कलाकार हैं, मथुरा में भी हैं, पर वहां कोई नई रचना सामने नहीं आई है।’
नई रचना का मंच पर आना आसान काम नहीं है। इस ओर प्रयास किए गए हैं, शिविर भी लगे हैं; डेढ़-दो महीने की प्रशिक्षण कार्याशालाएं भी हुई हैं, पर जिस कला को साधने के लिए वर्षों का अभ्यास आवश्यक हो, उसे चंद दिनों में कैसे हासिल किया जा सकता है? मंजे हुए कलाकार जब अपनी कला को प्रस्तुत करते हैं, तो उसके पीछे का परिश्रम दिखाई नहीं पड़ता, पर सधा हुआ स्तर अभ्यास के बिना नहीं टिक पाता है।
जिस तरह धान को खेत चाहिए, अनाज को कोठार, मशीन को फैक्टरी, उसी तरह कला को भी स्थान चाहिए- ऐसा स्थान जहां अध्ययन और अभ्यास किया जा सके; जहां प्रयोग और प्रयोग पर मंथन संभव हो। नौटंकी के कलाकार के पास आज यह नहीं है। जब तक पार्टियां थीं, उनके अखाड़े थे और वहीं अभ्यास गृह भी थे। अब ये दिखाई नहीं पड़ते। ग्रामीण और कस्बाई जीवन में कई तरह के परिवर्तन आए हैं, सामंती परिवेश ढला है। इलाके में (देश विभाजन और अन्य कारणों से हुआ पलायन) पलायान और गरीबी है, जिसके कारण इस विधा का पारंपरिक समर्थन अपनी धुरी से कुछ हिला है। सिनेमा और टेलीविजन ने भी सांस्कृतिक व्यवहार को प्रभावित किया है।
कुछ लोगों का मानना है कि जब वह व्यवस्था ही ढह गई, जिसमें यह विधा अंकुरित हुई थी तो इन कलाकारों का लुप्त हो जाना भी स्वाभाविक है। पर कला में कुछ तत्त्व चिरकालीन होते हैं, जिन्हें किसी भी काल में उपजाया जा सकता है और जिनका साया सदा प्रतिबिंब-सा समक्ष खड़ा रह पाता है। पारंपरिक सहयोग की कड़ी का टूटना आरंभ ही हुआ था कि केरल के कविजन ने कथकली प्रशिक्षा और अभ्यास के लिए 1922 में ही स्वतंत्र कलामंडल की स्थापना की थी। उस दुगार्मी दृष्टि के फलस्वरूप यह विधा निरंतर अग्रसर होती रही। आज केरल ही नहीं, उसके बाहर भी कथकली प्रशिक्षण ने विस्तार पाया है। देश-विदेश में मंचन की कड़ी भी बनती जा रही है।
यक्षज्ञान (यक्ष का गान) भक्ति काल से संबंधित रहा है। उसके विकास में भी कई उतार-चढ़ाव आए। वह भी कहीं खो सकता था, पर साहित्यकार शिवराम कारंथ ने उसे ध्यान से परखा और उन्हें लगा कि, ‘इसके राग और ताल समृद्ध हैं, जो विचार और भावना को नृत्य में प्रस्तुत करने में सक्षम हैं।’ 1970 में उन्होंने महात्मा गांधी मेमोरियल कॉलेज उडीपी में यक्षज्ञान केंद्र की नींव रखी।
वह अभ्यास, अध्ययन और प्रयोग संभव हो सका और जो प्रस्तुतियां तैयार हुर्इं, वे जापान के दर्शकों तक भी पहुंच पार्इं। आज यहां से साल भर का प्रशिक्षण समाप्त करने पर कलाकारों को स्थापित मंडलियों में काम मिल जाता है। कर्नाटक में यक्षज्ञान की लगभग तीस बड़ी और दो सौ छोटी सक्रिय मंडलियां हैं, जो नवंबर से मई तक कार्यक्रमों में व्यस्त रहती हैं। अनुमान है कि इनके इर्द-गिर्द कई करोड़ रुपयों की आय व्यय का संचालन होता है। साथ ही कई विश्वविद्यालयों में अब यक्षज्ञान सिखाया जा रहा है।
आजादी के इतने वर्षों के बाद भी, नौटंकी के लिए इस तरह के व्यवस्थित और गरिमामय अध्ययन केंद्र का निर्माण नहीं किया गया है। गांव की धूलि से इसका उद्गम हुआ है। तब क्या वंचित रहना ही उसकी नियति है?
नौटंकी को भी उसकी अपार संभावनाओं के साथ आंका जाना चाहिए। नौटंकी शैली में किया गया ‘आला अफसर’ प्रसिद्ध रूसी नाटक ‘इंसपैक्टर जनरल’ पर आधारित है। ‘मौन एक मासूम सा’ शेक्सपियर के ‘ओथेलो’ पर केंद्रित है। शेक्सपियर के काव्य को नौटंकी का संगीत सहज ही अपना लेता है। संवाद और भावना की नाटकीयता का समावेश नौटंकी की मूल रचना में समाविष्ट है। गंभीर प्रशिक्षण और अध्ययन इसे विस्तृत मंच दे सकता है। क्योंकि इसके मूल में स्वर है, ध्वनि है, मानव दृश्य, आवाज और पुकार है, यह मूक को आकार दे पाती है। अगर इसे ऐसा मंच मिले, जिसका ध्वनि संचालन भी इसके स्वर के अनुकूल हो, (जैसे गायन शैलियों के लिए ओपेरा हाउस निर्मित हुए) तो आज के समय की वाणी बनने की सामर्थ्य इसमें है। इसमें वह लचीलापन भी है, जो मंचसज्जा और वेशभूषा को भी निखार सके। माइक के सामने खड़े होकर गाने से अभिनेता बंध गया। आज उस माइक को हटाना संभव है, जिससे अभिनेता और स्वतंत्र रूप से अपने को व्यक्त कर पाएगा। नौटंकी के लिए एक विशाल भविष्य की रचना को सार्थक कर पाना असंभव नहीं है। यह सांस्कृतिक दायित्व और चुनौती है। 1982 में यक्षज्ञान के संदर्भ में शिवराम कारंथ ने कहा था, ‘अगर एक समझदार सरकार इसे प्रोत्साहित नहीं करेगी तो यह खत्म हो जाएगा और संभव है कि भावी पीढ़ियां इसे देख ही न पाएं….’ नौटंकी के बारे में शायद यह न कहना पड़े, क्योंकि इसमें विद्यमान लोकप्रिय तत्त्व लुप्त होने से बचाए रखेंगे। पर क्या उसे संस्कृति का मध्य मंच प्राप्त हो सकेगा- हमें इस प्रश्न का उत्तर खोजना चाहिए। ०