राम एक लीलाएं अनेक
हमारे यहां दशहरे की परंपरा सदियों पुरानी है। देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। ज्यादातर जगहों पर रामलीलाएं आयोजित होती हैं। हर रामलीला का अपना रंग है, अपनी रीत और ढंग है। उनमें शास्त्रीय से लेकर लोक शैली की अद्भुत छटा है। जहां रामलीलाओं का मंचन नहीं होता, वहां दशहरा मनाने का अपना-अपना ढंग है। उनमें कुल्लू और मैसूर के दशहरे की शाही परंपरा है, तो बनारस के रामनगर और अवध के दूसरे हिस्सों में मंचित होने वाली रामलीलाओं का अपना इतिहास। रामलीलाओं के मंचन और दशहरा मनाने की परंपराओं के बारे में बता रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।
यह केवल बुराई पर अच्छाई की सीख मात्र नहीं है। यह केवल रावण के पतन या भगवान राम द्वारा सीता को ‘असुरों’ से मुक्त कराने की शौर्य गाथा तक सीमित नहीं है। इसे देखने वाले इसकी कहानी को, संवादों, पात्रों, संगीत को सालों से देखते आ रहे हैं। लेकिन न तो एक और बार देखने-सुनने की प्यास बुझती है और न ही तड़क-भड़क वाले मल्टीमीडिया के युग में समाज से लुप्त हो रही लोक शैलियों में गायन या नृत्य का रसास्वादन करने की लालसा खत्म होती है। अंधेरा छाते ही राजधानी दिल्ली का लाल किला हो या मुंबई में गिरगांव चौपाटी के पास का मैदान या फिर बुंदेलखंड का छोटा-सा गांव या बिहार का दरभंगा, हर कहीं अपनी जगह सुरक्षित करने के लिए टाट-बोरे बिछाना, बाजार जल्दी बंद कर रामलीला मैदान में जुट जाना, समूचे देश में हजारों-हजार जगह यथावत हैं, और निरापद भी। कुछ जगह अभिनय, सजावट, पटकथा को समय की हवा भी लगी तो कई जगह आज भी सदियों पुरानी रामकथा वैसे ही बांची-अभिनीत की जा रही है। कई व्यावसायिक नाट्य समूह बड़े-बड़े हॉल लेकर वहां शो कर रहे हैं और पर्याप्त दर्शक बटोर रहे हैं।
नहीं बदली रामलीला
घर-घर में दूरदर्शन पर रामानंद सागर के अलावा कई अन्य निर्माताओं द्वारा तैयार रामकथा, रामचरित जैसे कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं, लेकिन खुले मैदानों में होने वाली रामलीलाओं को देखने वाले लोग कम नहीं हो रहे हैं। शायद लोक-संवाद का यही सुख है, अपनों के साथ सामूहिक रूप से रीति-नीति-ज्ञान-संगीत-नाट्य-लास्य का आनंद लेना। और इसी के चलते युग बदले, मान्यताएं बदलीं, समाज और सुविधाएं बदलीं। लेकिन नहीं बदली तो रामलीला।
दिल्ली का ही हिस्सा बन चुकीं हिंडन पार की अधिकतर कालोनियां चालीस साल पहले बसीं। देश के अलग-अलग हिस्सों से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए यहां के वाशिंदे मध्य आय वर्ग के हैं। इंदिरापुरम गगनचुंबी अट्टालिकाओं की कॉलोनी है। यहां धरोहर समाज द्वारा मंचित की जाने वाली रामलीला के संवाद गढ़वाली में होते हैं। हिमालय की गोद से उजड़ कर दिल्ली आ गए इन उत्तरांचलियों की रामलीला के सभी कलाकार वहीं रहते हैं। दिन में नौकरी करते हैं फिर घर आकर दो घंटे रिहर्सल और उसके बाद मंचन। उधर सूर्यनगर की रामलीला आज भी संस्कृत में होती है। इस भाषा को अधिकतर लोग नहीं समझ पाते, इसके बावजूद हजारों लोगों का वहां श्रद्धापूर्वक बैठे रहना इस बात की बानगी है कि राम की गाथा देश की संस्कृति के कण-कण में किस तरह रची-बसी है। कहीं पर यह रामलीला अपनी बिछुड़ी परंपरा को बचाने का प्रयास है, तो कई जगह गंगा-जमुनी मेलजोल की मिसाल।
उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले के बढ़नी विकास खंड के अंतर्गत औदाही कलां एक छोटा-सा गांव है। यहां की रामलीला कम से कम दो सौ साल पुरानी है और प्रारंभ से ही साझा संस्कृति की मिसाल है। रामलीला में हिंदुओं के साथ ही मुसलिम समुदाय के लोग भी कंधे से कंधा मिला कर मंचन और प्रबंधन करते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सबसे पुरानी रामलीलाओं में से एक सुल्लामल रामलीला की शुरुआत गाजियाबाद में सन 1900 में हुई थी। इसके लिए खुद सुल्लामल ने एक पदबंध रामकथा लिखी थी और शुरू में वे अपने आठ शिष्यों के साथ उसी पुस्तिका से रामलीला खेलते थे। उस रामायण की पूजा की जाती थी। फिर उस पुस्तक की प्रति पता नहीं कैसे नष्ट हो गई। उसके बाद से तुलसीकृत रामचरितमानस के आधार पर मंचन होने लगा। सुल्लामल के परपोते विनोद गर्ग आज भी रामलीला से सक्रियता से जुड़े हैं। यहां हर दिन बीस हजार लोग आते हैं। फीरोजाबाद जिले के खैरिया गांव की रामलीला में राम का अभिनय करने वाले शमसाद अली मंच पर जाने से पहले इस्लामिक रीति अनुसार ‘वजु’ करते हैं।
मारवाड़ी में संवाद
राजस्थान के सूरतगढ़ में अनूठी रामलीला का मंचन होता है। संस्कृत श्लोकों और हिंदी दोहों के स्थान पर यहां ठेठ मारवाड़ी में संवाद होते हैं। राजा दशरथ से लेकर श्रवण कुमार तक सभी किरदार मारवाड़ी भाषा में रचे-बसे नजर आते हैं। राजस्थानी में रामलीला का मंचन एक तरह से राजस्थानी को फिर से नई ऊर्जा देने का प्रयास है। दशकों संघर्ष के बावजूद राजस्थानी भाषा को अब तक मान्यता नहीं मिल पाई है। लेकिन मारवाड़ी भाषाप्रेमी नए-नए प्रयोग करके भाषा आंदोलन को मजबूती देने का प्रयास कर रहे हैं। जोधपुर के मांगरियाओं की रामलीला में जाति-धर्म का भेद दिखता ही नहीं है। असल में लोक-परंपराओं को किसी कानून में बांधना या किसी दायरे में समेटना असंभव है। लोक के गीत-संगीत-कला, समय के साथ खुद अपना रास्ता बनाते हैं।
राजस्थान के बारां जिले के पाटुड़ा गांव में पूरे देश की तरह शारदीय नवरात्रि में रामलीला होती थी। अचानक इलाके के बड़े-बुर्जुगों को खयाल आया कि इस समय रामलीला करना तो रावण की मौत का जश्न मनाना है, जबकि रामजी का जन्म तो चैत्र नवरात्रि के बाद आता है। तब से वहां रामलीला चैत्र में होने लगी। यह गांव काली सिंध नदी के किनारे, कोटा से कोई सत्तर किलोमीटर दूर है। यहां की रामलीला पूरी तरह संगीतमय है जिसमें सिंध, गुजराती, शेखावटी और ब्रज के लोकसंगीत का रंग होता है।
अनूठी रामलीला
बनारस के रामनगर की रामलीला को देश ही नहीं, दुनिया में अपने तरह का विलक्षण नाट्य मंचन कहा जाता है। वाराणसी से कोई बीस किलोमीटर दूर रामनगर में 1783 में रामलीला की शुरुआत काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने की थी। यहां रामलीला का मंचन इकतीस दिन तक चलता है। यहां पर बनाए गए स्टेज देखने योग्य होते हैं। इस रामलीला की खास बात यह है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी रामलीला में अपनी भूमिका आदा करते आ रहे हैं। यहां आज भी न तो चमचमाती रोशनी वाले लट्टू होते हैं, न ही लाउडस्पीकर, कोई सजाधजा मंच या दमक वाली पोशाक भी नहीं। केवल पेट्रोमेक्स या मशाल की रोशनी, खुला मंच और दूर-दूर तक फैले कच्चे-पक्के मंच और झोपड़े। इनमें से कोई अयोध्या, तो कोई लंका, तो कोई अशोक वाटिका हो जाता है। परंपरा के अनुसार हर दिन काशी नरेश गजराज पर सवार होकर आते हैं और उसी के बाद रामलीला प्रारंभ होती है। इस मंचन का आधार रामचरित मानस है, सो सभी दर्शक अपने साथ पाटी पर रख कर रामचरितमानस लाते हैं और साथ-साथ पाठ करते हैं।
अवध की रामलीला
राम्र की जन्मस्थली अयोध्या की रामलीला बेहद विशिष्ट है। इसमें कत्थक नृत्य में पारंगत कलाकार एकल और सामूहिक नृत्य और पारंपरिक ताल, धुन, टप्पों के आधार पर संपूर्ण रामलीला को एक विशाल मंच पर प्रस्तुत करते हैं। रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास से जुड़े एक अन्य स्थान चित्रकूट में रामलीला का मंचन फरवरी के अंतिम सप्ताह में सिर्फ पांच दिन के लिए होता है। यहां गीत-संगीत-अभिनय को और सशक्त बनाने के लिए समय के साथ आए तकनीकी उपकरणों का खुल कर इस्तेमाल होता है। हर पांचवे साल में वहां किसी नई शैली और प्रस्तुति का मंचन दिखने लगता है।
इलाहाबाद में तो कई रामलीलाएं एक साथ होती हैं। सभी का अपना इतिहास है। इलाहाबाद में रामलीला शुरू होने से एक दिन पहले कर्ण-अश्व की आकर्षक शोभायात्रा निकाली जाती है। इसमें पचास से ज्यादा बैंड पार्टियां, नृत्य करते कलाकार और बिजली से सुसज्जित झांकियां लोगों को रामलीला शुरू होने की सूचना देती हैं। भगवान राम का दूत कहे जाने वाले कर्णघोड़े की लोग रास्ते भर आरती और पूजा-अर्चना करते हैं। यह परंपरा इलाहाबाद में बहुत पुरानी रही है। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में प्रयोग में चार स्थानों पर रामलीला मंचन होता था। एक अंग्रेज अफसर फैनी पार्क्स ने अपने संस्मरण में सन 1829 में फौजियों द्वारा चैथम लाइन्स में संचालित और अभिनीति रामलीला का उल्लेख किया है। मुगल बादशाह अकबर ने भगवत गोसार्इं को कमोरिन नाथ महादेव के पास की भूमि रामलीला के लिए दान में दी थी, जिस पर वर्षों रामलीला होती रही थी।
पथरचट्टी यानी बेनीराम की रामलीला की शुरुआत सन 1799 में कही जाती है, जिसे अंग्रेज शासक खुल कर मदद करते थे। इन दिनों इलाहाबाद और उसके आसपास सौ से ज्यादा स्थानों पर रामलीला हो रही है, कहीं रावण इलेक्ट्रानिक चेहरे से आवाज निकालता, आंखें दिखाता है तो कहीं हनुमान को लिफ्ट से ऊपर उठा कर हवा में उड़ाया जाता है। करोड़ों का बजट, फिर भी भीड़ जुटाने को नर्तकियों का सहारा। जब देश-दुनिया की रामलीलाओं का विमर्श हो तो गढ़वाल और कुमायूं की रामभक्ति के रंग को याद करना अनिवार्य है। यहां की रामलीला की खासियत है, संवादों में छंद और रागनियों का प्रयोग। इनमें चौपाई, दोहा, गजल, राधेश्याम, लावणी, सोरल्ला, बहरेतबील जैसी विधाओं के वैविध्य का प्रयोग होता है। कुमायूं में पहली रामलीला 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में हुई। जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को जाता है। बाद में नैनीताल, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में क्रमश: 1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। १
हमारे यहां दशहरे की परंपरा सदियों पुरानी है। देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। ज्यादातर जगहों पर रामलीलाएं आयोजित होती हैं। हर रामलीला का अपना रंग है, अपनी रीत और ढंग है। उनमें शास्त्रीय से लेकर लोक शैली की अद्भुत छटा है। जहां रामलीलाओं का मंचन नहीं होता, वहां दशहरा मनाने का अपना-अपना ढंग है। उनमें कुल्लू और मैसूर के दशहरे की शाही परंपरा है, तो बनारस के रामनगर और अवध के दूसरे हिस्सों में मंचित होने वाली रामलीलाओं का अपना इतिहास। रामलीलाओं के मंचन और दशहरा मनाने की परंपराओं के बारे में बता रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।
मैसूर का दशहरा
सूर का दशहरा पूरी दुनिया में मशहूर है। पिछले छह सौ साल से भी ज्यादा समय से मनाया जाने वाला यह पर्व अपनी परंपरा, कला-संस्कृति और उल्लास के अद्भुत सामंजस्य के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध किया था। तभी से यहां यह पर्व मनाया जाता है। मैसूर के दशहरे की शुरुआत यहां की चामुंडी पहाड़ियों पर बने चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा के साथ होती है। दस दिन तक चलने वाले इस दशहरे महोत्सव की खासियत यह है कि न केवल मैसूर का महल, बल्कि पूरा मैसूर शहर रोशनी से जगमगा उठता है। मैसूर के महल को करीब एक लाख और चामुंडी पहाड़ियों को डेढ़ लाख से भी ज्यादा बल्बों से सजाया जाता है।
मैसूर के दशहरे का इतिहास मध्यकालीन दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य की स्थापना से शुरू होता है। इस साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने चौदहवीं सदी में की थी। तभी से नवरात्र के दौरान इस पर्व को मनाने की परंपरा है। बाद में वाडयार राजवंश ने इसे दशहरे का नाम दिया। और फिर यह इतना लोकप्रिय होता गया कि 2008 में कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का दर्जा दे दिया। मैसूर में दशहरे के दिन बड़ी शोभायात्रा निकलती है। यह मैसूर महल से शुरू होती है और तीन किलोमीटर दूर बने बन्नीमंडप में जाकर खत्म होती है। इसमें बड़ी संख्या में सजे-धजे हाथी होते हैं। सबसे आगे विशेष हाथी ‘अंबारी’ होता है, जिसकी पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी की विशाल प्रतिमा और साढ़े सात सौ किलो का सोने का बना हौदा रखा जाता है। इस शाही शोभायात्रा को देखने के लिए पूरा शहर उमड़ आता है। सड़क के दोनों ओर खड़े लोग हाथियों पर फूल बरसाते हैं। मैसूर महल के सामने एक बड़ा मेला भी लगाया जाता है। १
कुल्लू का दशहरा
कुल्लू का दशहरा देश भर में मशहूर है। हफ्ते भर के इस पर्व के दौरान कुल्लू की पहाड़ियों में जिस सामाजिक परंपरा और सांस्कृतिक एकता की झलक दिखाई देती है, वह अपने में बेजोड़ है। बड़ी संख्या में सैलानी यहां दशहरा देखने आते हैं। इसकी विशेषता यह है कि जब देशभर में यह पर्व मन चुका होता है तब कुल्लू में दशहरें की शुरुआत होती है। यहां के दशहरे का रामायण की घटनाओं, रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। करीब चार सौ पहले की बात है। कुल्लू में जगत सिंह नाम के राजा का राज था। एक दिन किसी ने राजा को बताया कि यहां के एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बेशकीमती रत्न हैं।
राजा ने सैनिकों से उसे बुलवाया और सारे रत्नों के बारे में पूछा। ब्राह्मण डरा हुआ था। उसने राजा को श्राप दिया और पूरे परिवार के साथ अपनी जान दे दी। उसके बाद राजा बीमार पड़ने लगा। ठीक होने का नाम ही न ले। तभी एक साधु ने राजा को रघुनाथ जी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। राजा ने अयोध्या से ये मूर्ति बनवा कर मंगाई और लगवा दी। इसके बाद राजा ठीक होने लगा। तभी से यहां दशहरा मनाया जाने लगा।
कुल्लू में दशहरे पर जो सवारी निकलती है उसमें पालकी में देवी-देवताओं की झांकियां होती हैं। लोग अपने प्रमुख आराध्य रघुनाथ जी की पूजा करते हैं। सात दिन तक पूरा पहाड़ ढोल, नगाड़ों, बांसुरी-बिगुल से गुंजायमान रहता है। १
सात समंदर पार भी रामलीलाएं
शिया के कई देशों, जैसे- मलेशिया, इंडोनेशिया, नेपाल, थाईलैंड आदि में उनकी अपनी परंपराओं के अनुसार सदियों से रामलीला मंचन होता रहा है। फीजी, मारीशस सूरीनाम, कनाड़ा, दक्षिण अफ्रीका और अब अमेरिका में भी रामलीला मंचन हो रहे हैं। इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का प्रचलन है। दक्षिण-पूर्व एशिया के इतिहास में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला होने का पता चलता है। जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में एक समारोह का विवरण है जिसके अनुसार सिजालुक ने नृत्य और गीत के साथ रामायण का मनोरंजक प्रदर्शन किया।
कंपूचिया में रामलीला का अभिनय ल्खोनखोल के माध्यम के होता है। ‘ल्खोन’ यानी इंडोनेशाई भाषा में नाटक और कंपूचिया की भाषा खमेर में खोल का अर्थ बंदर होता है। कंपूचिया के राजभवन में रामायण के प्रमुख प्रसंगों का अभिनय होता था। जावा और मलेशिया के वेयांग और थाईलैंड के नंग का विशिष्ट स्थान है। जापानी भाषा में वेयांग का अर्थ छाया है। इसके अंतर्गत सफेद पर्दे पर रोशनी डाली जाती है और बीच में चमड़े की विशाल पुतलियों को कौशल के साथ नचाते हुए उसकी छाया से राम कथा को देखा जाता है। १