Baadshaho Movie Reviews: फरेबी रानी और चोरी

समझ लीजिए कि ‘इटालियन जॉब और ओशंस इलेवन’ की कहानियों का घालमेल कर एक फिल्म बना दी गई है। वैसे तो प्लेयर्स भी इटालियन जॉब की कहानी में घालमेल कर बनाई गई थी। लेकिन ‘बादशाहो’ के जटिल होने का विचार कुछ-कुछ ओशंस इलेवन से उठाया गया है लेकिन तिजोरी तोड़ने की शैली देसी है यानी एक पियक्कड़ पेचदार तिजोरी को थोड़ी सी मेहनत से खोल देता है। वैसे तो ‘बादशाहो’ विदेशी शैली की थ्रिलर फिल्म है, पर समझ लीजिए कि विदेशी ब्रांड की बोतल में देसी ठर्रा भर दिया गया है। कहने को इसमें भारतीयता की छौंक भी लगाई गई है और वह है इमरजंसी का यानी इंदिरा गांधी ने जब 1975 में देश में आपातकाल लगाया था। पर ये सिर्फ कहानी को भारतीय बनाने का बहाना भर है क्योंकि फिल्म के बाकी हिस्से में इमरजंसी का कोई और मसला है ही नहीं। हां, इतना दिखाया गया है कि उस दौरान गीतांजलि (इलियाना डिक्रूज) नाम की एक रानी के घर छापा मारा गया है। रानी विधवा है लेकिन फैशनपरस्त है। उसकी मुस्कान में छल भी छलछलाता रहता है।

कहानी जो कई पैबंदों के साथ बुनी गई है-में मुख्य बात ये है कि गीतांजलि के महल पर छापा मारकर और उसके कुछ हिस्सों को बारूद से उड़ाकर बड़े पैमाने पर सोने की अशर्फियां और गहने बरामद किए जाते हैं। इस खजाने पर दिल्ली के एक नेता की नजर है, जिसे संजय गांधी से मिलता-जुलता बनाया गया है लेकिन नाम नहीं लिया गया है। सोने को दिल्ली भेजने का इंतजाम सेना के अधिकारी को दिया जाता है। पर गीतांजलि भी तो सयानी है। वो अपने एक विश्वस्त बॉडीगार्ड भवानी (अजय देवगन) को कहती है कि इस खजाने को दिल्ली जाने से बचाए। भवानी अपने एक चोर दोस्त डालिया (इमरान हाशमी) और एक तालाचोर टुकला (संजय मिश्रा) और गीतांजलि की एक महिला दोस्त संजना (ईशा गुप्ता) को साथ लेता है और दिल्ली जा रहे खजाने को बीच रास्ते अगवा करने की योजना बनाता है। खजाने को खास तरह के ट्रक से दिल्ली ले जाया जा रहा है और उसकी निगरानी की जवाबदेही सहर (विद्युत जामवाल) पर है। यानी चोर-सिपाही वाला खेल शुरू होता है और फिल्म इस रोमांचवादी सवाल पर आधारित है कि चोर जीतेगा या सिपाही। लेकिन नहीं, ठहरिए। खेल में एक खिलाड़ी है जिसका नाम है गीतांजलि।

वो क्या चाहती है और असल में किससे प्यार करती है इस पर से भी पर्दा धीरे-धीरे उठता है। फिल्म में एक्शन भरपूर है और अजय देवगन और विद्युत जामवाल दोनों को अपने-अपने जौहर दिखाने के भरपूर मौके मिले हैं। संजय मिश्रा ने जो किरदार निभाया है उसमें हास्य भरपूर है। इमरान हाशमी और ईशा गुप्ता वाले चरित्रों में भी इश्कियाना मिजाज भरा गया है। संवाद भी चटपटे हैं। ऊंट भी अच्छी संख्या में दिखाए गए हैं ताकि राजस्थानी माहौल दिखाया सके। पर फिल्म की कमजोरी ये है कि इसमें मौलिकता नाम की कोई चीज नहीं है। जिस ढंग से ट्रक पर जा रहे खजाने को लुटता हुआ दिखाया गया है वैसे दृश्य हिंदी फिल्मों में बार-बार दिखाए गए हैं।

 निर्देशक ने ये कोशिश जरूर की है सामंतवाद का क्रूर चेहरा भी दिखा सके। इसलिए जब फिल्म आखिरी हिस्से में पहुंचती है तो गीतांजलि को निर्दयी दिखाया गया है। पर इसका उल्टा असर हो गया है और हीरोइन ही खलनायिका बन जाती है। एक तरह से फिल्म भवानी यानी अजय देवगन के सद्गुणों और जांबाजी को दिखाने में लग जाती है। ये भी समझ में नहीं आता कि गीतांजलि का क्या अंत हुआ और उड़ते हुए बवंडर में वह कहां खो गई। साफ है कि निर्देशक आखिर तक तय नहीं कर पाया कि फिल्म का एक अच्छा सा अंत किस तरह करे। वैसे भी चॉकलेट बनाने का सामान लेकर आप मालपुआ थोड़े ही बना सकते हैं।

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