बच्चे जब बहस करें

बच्चे आखिर बच्चे ही होते हैं। जिद भी करेंगे, रूठेंगे भी। अपनी बात मनवाने को मजबूर भी करेंगे। अगर बच्चों में ये बाल हठ नहीं होगा तो फिर बच्चे कैसे? पर फिर माता-पिता इतने परेशान क्यों जाते हैं बच्चों की जरा-जरा सी बातों को लेकर? बच्चों को समझाने के बजाय उनसे बहस करना, उलझना, उन पर झल्लाना क्या उचित है? बच्चों के लालन-पालन के बारे में बता रही हैं सुमन बाजपेयी।

दस साल की नेहा बहुत प्यारी बच्ची है। हंसी और पढ़ाई के अलावा अन्य चीजों को भी समझने की उसकी काबीलियत न सिर्फ बड़ों को उसकी ओर आकर्षित करती है, बल्कि और बच्चे भी उससे दोस्ती करने को लालायित रहते हैं। पर सामने वाला जब उसकी कोई बात मानने से इनकार कर देता है तो वह जिद पर उतर आती है और तब तक लगातार बहस करते हुए अपनी बात पर अड़ी रहती है जब तक कि सामने वाला या तो हार नहीं मान लेता या तंग आकर वहां से चला नहीं जाता। वह निरंतर बहस करती रहती है और ऐसे में उसे संभालना मुशकिल हो जाता है। घर में ही नहीं, दूसरों के सामने भी उसका व्यवहार काफी असंतुलित हो जाता है। किसी की बात न मानना उसकी आदत में शुमार हो गया है।  छह वर्षीय शलभ एक पल में छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाता है, तो जरा सा ठुनकते ही पैर भी पटकने लगता है। अगर उसका मनपसंद खाना न बने तो वह रूठ जाता है और तब वह चीजें फेंकने लगता है। अगर उसे अपना खिलौना न मिले तो वह पसर जाता है और चिल्लाने लगता है। आपको भी क्या कभी ऐसा लगता है कि अपने बच्चे को संभालना मुशिकल हो रहा है। या लगता है कि वह सही ढंग से यानी तमीज से व्यवहार नहीं करता? अभिभावक व अध्यापक ऐसे बच्चों को बात न मानने वाले या बहस करने वाले बच्चों का दर्जा दे देते हैं। ऐसे बच्चे अकसर अपने माता-पिता के लिए दूसरों के सामने शर्मनाक स्थिति उत्पन्न कर देते हैं।

चाइल्ड काउंसलर ममता गुप्ता के अनुसार, बच्चे की अपने मां-बाप से बहस करने की जड़ें बचपन में ही सत्ता या ताकत हासिल करने की चाह में छिपी होती हैं। और अगर इस दौरान वह अपने माता-पिता को उत्तेजित करने में कामयाब हो जाता है तो वह समझ जाता है कि उसमें ताकत है। अगर ऐसा होने लगे तो बेहतर होगा कि बहस को बीच में ही रोक दिया जाए या फिर बच्चे को इस तरह नियंत्रित किया जाए कि उसे अपने ऊपर लगे अकुंश का आभास न हो और वह आपकी आज्ञा व निर्देश का पालन भी करने लगे। सामान्यतया बहस बड़ों से शुरू होती है, जिसके प्रयुत्तर में बच्चा भी जवाब देता है। वह इसलिए क्योंकि उसे लगता है कि वह जो कर रहा है, वही ठीक है या वह भी कुछ कर दिखाने की क्षमता रखता है। बड़े अक्सर बच्चों से कहते हैं, ह्यक्योंकि मैंने ऐसा करने को कहा है, इसलिए ऐसा ही करो, अपनी मत चलाओ, ज्यादा सवाल मत पूछो, वैसा ही करो जैसा मैंने कहा है।ह्ण इस तरह के कथन बच्चों को एक अजीब उलझन में डाल देते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बात समझने की चेष्टा नहीं की जा रही है। नतीजतन वे विद्रोह पर उतर आते हैं या अपने माता-पिता के साथ अपने दिल की बात साझा करने में सकुचाने लगते हैं। जबकि मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बच्चों को भी अपनी इच्छाएं व विचार व्यक्त करने का पूरा अधिकार है।

ऐसी स्थिति में अभिभावकों को एक मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। ऐसा नजरिया रखना चाहिए जो न तो तानाशाह हो और न ही लचीला। बच्चों को यह समझाना बहुत जरूरी है कि उन्हें बड़ों का आदर करना चाहिए। उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना भी जरूरी है कि मां-बाप उनके विचारों की कद्र करते हैं। उन्हें यह बताएं कि बिना गुस्सा किए भी वे अपनी बात मनवा सकते हैं।

बाल मनोवैज्ञानिक मधुमिता पुरी के अनुसार, बच्चे में बहस करने की आदत पड़ने की वजह मां-बाप का उसके सवालों का सही उत्तर न देना ही है। बच्चा कुछ पूछे और उसे झिड़क दिया जाए तो या तो वह अगली बार कुछ पूछेगा ही नहीं या फिर वह पलटकर जवाब देने लगेगा।  हम बहस को उनकी जिज्ञासा भी कह सकते हैं, क्योंकि अगर हम बच्चे को किसी काम या बात के लिए मना करते हैं तो वह उसका कारण जानने के लिए उत्सुक हो जाता है। अगर अभिभावक उसे जवाब से संतुष्ट नहीं कर पाते तो खीझ कर कह देते हैं कि फालतू की बहस मत करो। बस, यहीं से बच्चों में पलट कर जवाब देने की आदत पड़ जाती है। जरूरी है कि उनकी जिज्ञासा को शांत भाव से सुनें और उसे सही अर्थ में शांत करने की कोशिश करें।  अधिकतर अभिभावक कहते हैं कि आजकल के बच्चे बहुत बहस करने लगे हैं या उनकी बात नहीं मानते, बस अपने मन की करते हैं। लेकिन बच्चों को दोष देने के बजाय उन्हें अपने आप से पूछना चाहिए कि उनके पास अपने बच्चों की भावनाओं को समझने व उनकी समस्यायों को सुनने का समय है? अगर वयस्क स्वयं को नहीं बदल सकते तो वे बच्चों से, जो उनके पास सलाह या मार्गदर्शन लेने आते हैं, बदलने की उम्मीद कैसे रख सकते हैं?

बच्चे के मन को समझेंकई बार अहं व अपनी बात रखने की आधिपत्य भावना बच्चों व वयस्कों के बीच का मुख्य मुद्दा बन जाता है। हम बच्चों से यही उम्मीद करने लगते हैं कि वे सिर झुकाए हमारी सारी बात मान ले। मधुमिता पुरी कहती हैं, ह्यबच्चे के इस तरह के व्यवहार के लिए परिवेश भी काफी हद तक जिम्मेदार होता है। बच्चा जिद्दी या हठी पैदा नहीं होता है, बल्कि हम उसे ऐसा बनने पर मजबूर करते हैं। अगर बच्चा चिल्ला रहा है या रो रहा है तो इसका अर्थ कदापि नहीं कि वह ऐसा विरोध करने के लिए कर रहा है, बल्कि वह आपको समझाना चाहता है कि वह अकेलापन महसूस कर रहा है या भीतर से आहत है। यह माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों की मनस्थिति को समझें। वे उसके क्रोध, आंसू और प्रतिक्रिया से परे जाकर देखें कि आखिर वह कहना क्या चाहता है। फिर वे अपने आप महसूस करेंगे कि वह आपकी बात मान रहा है।

जो बच्चे बहस करते हैं, वे वास्तव में वयस्कों के धैर्य की परीक्षा ही लेते हैं। कोशिश करें कि जब वह गुस्से में हो तो न तो उसे डांटें न ही मारें, बल्कि गुस्सा शांत होने पर उसे बताएं कि गुस्से से कोई सकारात्मक हल नहीं निकलता है। बहुत ज्यादा कठोर न बनें और बच्चे को अपनी बात कहने का मौका दें, ताकि आप दोनों के बीच एक पारर्दिशता कायम हो सके। अगर आप उसके सवालों का जवाब देंगे और उसकी भावनाओं को समझते हुए उसे समय व प्यार देंगे तो कोई वजह नहीं कि वह आपसे बहस करे। बच्चे तब जिद करते हैं जब उन्हें किसी मुद्दे पर अपने अभिभावकों से बहस करनी होती है, ताकि वे ये साबित कर सकतें कि उन्हें क्या चाहिए। नखरे और जिद हर वक्त सही नहीं होते, खासकर तब जब बच्चा बड़ा हो रहा होता है। और अंत में बच्चों के जिद की समाप्ति उनके अडियल रुख और रोने से होती है। अगर बच्चा सबके सामने मचल जाए तो बेहतर ये होता है कि बच्चों के इस व्यवहार पर ज्यादा ध्यान न दें, क्योंकि अगर एक बार बच्चे को पता लग गया है कि उसके इस व्यवहार से आपको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है तो वह खुद शांत हो जाएगा। आप उससे बेहद शांत तरीके से और प्यार से समझाएं।

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