असुरक्षित बचपन
इधर स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर सारे देश में किसी ने किसी ढंग से चर्चा होती रही है। कुछ महीने पहले निजी स्कूलों के पालकों ने कई राज्यों में इन स्कूलों में लगातार बढ़ती फीस को लेकर प्रदर्शन किए। यह आक्रोश बढ़ता ही जा रहा है। राज्य सरकारों ने फीस पर नियंत्रण करने के वादे भी किए हैं। कई दर्दनाक दुर्घटनाओं में मासूम नौनिहालों का जीवन जाता रहा। दुष्कर्म की घृणित वारदातें भी सामने आर्इं। इन सबके बाद भी स्कूलों ने पालकों के आक्रोश और अपेक्षाओं को समझने का कोई प्रयास नहीं किया। स्थितियां पहले के बरक्स और खराब होती गर्इं। रेयान स्कूल शृंखला के अलग-अलग स्कूलों में दो बच्चों की मृत्यु ने सभी को दहला दिया है, केवल बच्चों और पालकों ही नहीं। स्कूल चलाने वालों की संवेदनशीलता इस सीमा तक तिरोहित हो गई है कि इस स्कूलों के प्रबंधन से आगे आकर किसी ने कोई जिम्मेवारी लेने की आवश्यकता नहीं महसूस की और न ही किसी अन्य प्रकार से कोई संवेदनशीलता ही दिखाई।
भारत सरकार, राज्य सरकार और सीबीएसइ ने वही धीरे-धीरे किया जो सरकारी तंत्र से सामान्यत: अपेक्षित होता है। नए दिशानिर्देश जारी कर दिए हैं! लोग इससे अब प्रभावित नहीं होते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि इस बार इन दिशानिर्देशों पर अमल करने का प्रयास कर्मठता से किया जाएगा और लगातार बिगड़ती जा रही स्थिति को संभालने के लिए जिस तत्परता और लगनशीलता की आवश्यकता है, वह दिखाई देगी। सामान्य तौर पर लोगों और खासकर पालकों को भी इस पर विश्वास नहीं होता है कि सरकारी निर्देशों का पालन सही अर्थों में किया जाएगा।
दिल्ली में सात वर्षीय मासूम प्रद्युम्न की जघन्य हत्या को लेकर जन जनसाधारण में गहरी प्रतिक्रिया हुई। उसमें अधिकतर ध्यान निजी स्कूलों, जिन्हें पब्लिक स्कूल के नाम से जाना जाता है, की मानसिकता और निरंकुशता की ओर गया। कोई भी ‘पब्लिक स्कूल’ उतना ही ऊंचा माना जाता है जितनी ऊंची फीस वह ले पाता है। उनके दरवाजे पर समाज का श्रेष्ठिवर्ग भी पंक्तिबद्ध और नतमस्तक होते देखा जाता है। इसमें वे सभी शामिल हैं जो आर्थिक रूप से समर्थ हैं, जिनके पास ऊंची फीस देने की क्षमता होती है। सारी बहस में सरकारी स्कूलों की स्थिति को लेकर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। सरकारी स्कूलों की स्थिति में सरकारों द्वारा पेश किए गए सुधार के आंकड़े कई बार बड़े प्रभावी लगते हैं। पर जब स्कूल में जाकर स्थिति देखी जाती है तो अनेक निराशाजनक तथ्य ही सामने आते हैं। इन स्कूलों की सबसे बड़ी आवश्यकता है कर्मठ और क्षमतावान अध्यापकों की, समय पर आने वाले अध्यापकों की, और अपने व्यवसाय को महत्त्व देने वालों की। इस वर्ग में ऐसे अध्यापकों की कमी अब लगातार दिखाई देती है। इसे सुधारना आसान नहीं है। राज्य सरकारें अपनी सीमाएं जानती हैं, इच्छा शक्ति की कमी को पहचानती हैं, और जिस राजनीति के कारण यह स्थितियां पैदा हुई हैं उन्हें जानते हुए भी रोक न पाने की अक्षमता को ढकना चाहती हैं।
शायद इसी कारण कई राज्य सरकारें बड़ी तेजी से अपने स्कूलों को निजी निवेशकों को देने की उत्सुकता दिखा रही हैं और इसके लिए अनेक प्रकार से नए-नए कारण प्रस्तुत कर रही हैं निजी निवेशक स्कूल खोलने को पूरी तरह एक निश्चित लाभांश देने वाला व्यापार मानते हैं और इस क्षेत्र में स्वास्थ्य के क्षेत्र की तरह ही निवेश करने को उत्सुक हैं। वे जानते हैं कि इन दोनों क्षेत्रों में मांग बढ़ती ही रहेगी, सरकारें अपने स्कूल सुधारने में न तो सक्षम हैं और न ही उन्हें सुधारनें में उनकी कोई वास्तविक रुचि है। जैसे-जैसे निजी क्षेत्र में स्कूलों और बच्चों की संख्या बढ़ती जाएगी, उनकी निरंकुशता में भी लगातार बढ़ोतरी होती जाएगी। और फिर स्वायत्तता की मांग जोर पकड़ती जाएगी, जिसे नेताओं और अधिकारियों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समर्थन मिलता जाएगा। आखिर उन सबके बच्चे भी तो उन्हीं स्कूलों में पढ़ने जाते है! शिक्षा की लगातार गहरी होती खाई को कम करने की जिम्मेवारी जिनकी है, वे ही निजी स्कूलों की मनमानी को नजरअंदाज करेंगे तो किसी सुधार या नियंत्रण या नियम-पालन की अपेक्षा का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है, सिवाय कागजों में दिशानिर्देश होने की औपचारिकता की खानापूरी के!
देश के नौनिहालों और तरुणों की सुरक्षा के संबंध में जो भी कदम उठाए जाएंगे या उठाए जाने चाहिए वह केवल भौतिक सुरक्षा को लेकर ही सीमित नहीं होनी चाहिए। देश में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसमें जिसके कारण शिक्षा जगत में दो बड़े वर्गों के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। यह कितने आश्चर्य की स्थिति है कि सरकारी स्कूलों में सुरक्षा के उपायों पर कोई चर्चा होती ही नहीं है? राज्य सरकारें क्या कभी इस ओर ध्यान देती हैं कि जो वर्ग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजता है क्या वह अपने बच्चों के स्कूल तक आने जाने का प्रबंध पर पाता है या नहीं?
निजी स्कूल और उसके निवेशक केवल उस वर्ग की चिंता करते हैं जो उन्हें ‘समय’ आने पर सरकारी अफसरों से राहत दिला सके। वे वहां पर लगातार सुविधाएं और शुल्क बढ़ाते जाते हैं और उसी के नाम पर फीस में वृद्धि करते जाते हैं। नैतिकता की स्थिति यह है कि स्कूल बड़े नामी-गिरामी स्कूल दुकानें खोल कर कॉपी-किताब, पोषाक, कलम इत्यादि भी बेशर्मी से बढ़ाए गए दामों पर खरीदने को पालकों को मजबूर करते हैं। राजनेता, नौकरशाह और काली कमाईवाले इसमें सक्रीय भागीदारी करते हैं। वास्तव में बड़ी संख्या में ऐसे स्कूल इन्हीं के द्वारा स्थापित या प्रेरित होते हैं। अधिकतर बिल्डर, शराब माफिया, काला धन अर्जक ही स्कूल खोलते हैं। यहां जो पालक अपने बच्चों को भर्ती करते हैं उनमे से अधिकांश की मानसिकता यह बन जाती है कि वे जितनी अधिक फीस देंगे, उनकी समाज में उतनी ही प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
स्कूल शिक्षा समाप्त करने के बाद भयंकर बहुआयामी प्रतिस्पर्धा तरुणों और युवाओं की प्रतीक्षा करती है। इसके साथ व्यावसायिक संस्थानों में प्रतियोगिता परीक्षाओं की गिरती साख, निजी महाविद्यालयों/ विश्वविद्यालयों द्वारा अनियंत्रित शोषण से भी इनका सामना होता है। सैकड़ों निजी महाविद्यालयों द्वारा बड़ी फीस लेने के बाद भी आवश्यक ज्ञान और कौशल न दे पाना हमारे अधिकांश युवाओं की नियति बन गई है। रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं, मातृभाषा का महत्त्व घटता जा रहा है, अंग्रेजी का ‘प्रभुत्व’ लगातार बढ़ता जा रहा है। शिक्षा संस्थानों के बजाय अब शिक्षा में आगे बढ़ने के लिए ट्यूशन, कोचिंग तथा अंग्रेजी ही आकर्षण के केंद्र बनते जा रहे हैं। देश की भावी पीढ़ी के सामने जटिलताएं बढ़ रही हैं। कोई भी देश अपनी युवा प्रतिभा के एक बड़े अंश को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। पिछले दो वर्षों से नई शिक्षा नीति पर देशव्यापी विमर्श हो रहा है। अपेक्षा तो यही है कि आने वाली नई शिक्षा नीति इन सभी पक्षों को ध्यान में रख कर समाधान देश के सामने प्रस्तुत करेगी।