बहुसंख्यकवाद का रास्ता

उन्नीस सौ चौरासी के चुनाव परिणामों ने राजीव गांधी को भी चौंका दिया था। उनकी मां और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तीस अक्तूबर को अपने ही सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्या कर दी गई थी और उसके बाद भीषण सिख-विरोधी दंगे हुए थे। यों तो हालात देर-सबेर काबू में आ गए थे, पर इंदिरा गांधी की हत्या पर गुस्सा फिर भी दहक रहा था। दिसंबर के आखिरी दिनों में वोट पड़े थे और राजीव गांधी के नेतृत्व की कांग्रेस ने सबका सूपड़ा साफ कर दिया था। 533 सीटों की लोकसभा में कांग्रेस ने उनचास प्रतिशत वोट पाकर 404 सीटें जीती थी और सहयोगी दलों को मिला कर 415 सीटें उसकी झोली में आई थीं। यह एक ऐतिहासिक जीत थी, जिसकी पुनरावृत्ति होना असंभव-सा लगता है।

उन दिनों राजीव गांधी के करीबी और पार्टी के मुख्य कर्ताधर्ता अरुण नेहरू ने अपार जनसमर्थन को बहुसंख्यकवाद की नजर से देखा था। उनका मानना था कि बहुसंख्यक समुदाय ने क्षुब्ध होकर एकतरफा वोट दिया था, जो बाकी सब वोटों पर भारी पड़ा था। उन्हें अहसास हो गया था कि कांग्रेस की चुनावी रणनीति इसी ट्रेंड को मजबूत करके और धारदार हो सकती है। वास्तव में बहुसंख्यकवाद के जनक राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी है। 1984 से पहले हिंदू वोट को एकजुट करने की कोशिश बड़े पैमाने पर नहीं हुई थी। जनसंघ जैसी पार्टियां हिंदू एकता की बात जरूर करती थीं, पर उनका प्रभाव अत्यंत सीमित था। 1984 में बहुसंख्यक वोट अपने आप एकजुट हो गया था और कांग्रेस ने इसकी ताकत को तुरंत पहचान भी लिया था। इसको अपनी तरफ रखने के लिए 1986 में राम जन्मभूमि का ताला खोला गया था और बाद में शिलान्यास भी इसी वजह से हुआ था। उस समय भारतीय जनता पार्टी की लोकसभा में मात्र दो सीटें थीं- एक आंध्र प्रदेश से और दूसरी गुजरात से। अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनाव हारे बैठे थे।

पर कमलापति त्रिपाठी जैसे पुराने कांग्रेसी अपनी परंपरागत वोट पॉलिटिक्स की ‘धर्म निरपेक्षता’ को छोड़ने पर राजी नहीं थे। उन्हें कांग्रेस में ‘नए लड़कों’ के उभरने से भी एतराज था, क्योंकि उनकी वजह से वरिष्ठ लोग हाशिए पर लगाए जा रहे थे। साथ में कुछ कांग्रेसी नेता, जैसे विश्वनाथ प्रताप सिंह, की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा थी, जो राजीव राज में सम्मिलित नहीं हो पा रही थी। कुल मिलाकर, 1985 से 1987 के बीच कांग्रेस की बहुसंख्यकवाद की राजनीतिक पहल फुस्स हो गई थी।पर जन्मभूमि के ताले खुलने से और बहुत सारी राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाएं शुरू हो गई थीं। इनकी डोर एक तरफ भारतीय जनता पार्टी ने पकड़ी थी, तो दूसरी तरफ ‘सेक्युलर’ नेताओं ने। लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता आक्रामक रूप से मुसलिम समुदाय के पक्ष में उतरे थे। जातिवाद और अल्पसंख्यकवाद मौसेरे भाई बन कर चुनावी राजनीति में जम गए थे। दूसरी ओर लालकृष्ण आडवाणी ने हिंदूवादी भाव को मुखर करने के लिए अपना रथ समर में उतार दिया था। इससे अस्सी के दशक के आखिरी तीन सालों में धार्मिक उन्माद अपने चरम तक पहुंच गया था और वोट बैंक पॉलिटिक्स साफतौर पर उभर कर सामने आ गई थी।

1984 के बाद 1989 चुनाव में भाजपा दो सीटों से बढ़ कर पचासी हो गई थी और ‘सेक्युलर’ नेशनल फ्रंट एक सौ तिरालीस सीट पाकर सरकार बनाने की स्थिति में आ गया था। दूसरी तरफ, कांग्रेस 404 की बुलंदी से 197 की मजबूरी में पहुंच गई थी। सभी पक्ष अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की असुरक्षा को हवा दे रहे थे। फैसला तभी हो जाता, अगर विश्वनाथ प्रताप सिंह बीच में मंडल न ले आते। 1991 में भाजपा मंडल-कमंडल के चलते भाजपा की एक सौ बीस सीटें आर्इं। 1996 में यह बढ़ कर एक सौ इकसठ हो गई और 1998 और 1999 में भी एक सौ बयासी बनी रही। अटल बिहारी वाजपेयी ने 1996 में तेरह दिन की और 1998 में तेरह महीने की अल्पकालीन सरकारें चलाई थी, पर 1999 में एनडीए बनने के बाद गठबंधन की उनकी सरकार पूरे पांच साल चली थी। वैसे 1990 के पूरे दशक में आर्थिक उदारीकरण और उसके साथ मिली खुशहाली धार्मिक ध्रुवीकरण पर हावी रही थी, जिसके फलस्वरूप अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 का चुनाव हिंदुत्व के बजाय इंडिया शाइनिंग के नारे पर लड़ा था और कांग्रेस के हाथों मात खाई थी। भाजपा को कुल एक सौ अड़तीस सीटें मिली थीं। 2009 में यह घट कर एक सौ सोलह हो गई थी।

कांग्रेस के दस साल के शासन काल में आर्थिक प्रगति तो हुई, पर वह अल्पसंख्यक वाद की तरफ लगातार फिसलती रही। शायद उसको भरोसा था कि आर्थिक उन्नति वोटर पर हावी हो जाएगी और आपसी खिन्नता का मसला उसमें दब जाएगा। पर आतंकवाद, कश्मीर और स्थानीय घटनाओं से राख हुई आंच धीरे-धीरे हवा पकड़ रही थी। दुनिया के कई हिस्सों में इस्लाम कट्टरपंथी अपना दबदबा बना चुके थे और भारत के सामने भी यह खतरा मुंह बाए खड़ा था।
इन सबके चलते भाजपा में नए नेतृत्व का उदय हुआ। उसने आर्थिक सुरक्षा को बहुसंख्यक असुरक्षा से जोड़ा और धर्म निरपेक्षता को अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से नाप दिया। 2014 का चुनाव उसने आक्रामक बहुसंख्यकवाद और लुभावने विकास के वादों पर लड़ा था और उसका उसे बड़ा फायदा मिला था। भाजपा की लोकसभा सीटें एक सौ सोलह से बढ़ कर दो सौ बयासी हो गई थीं।

मौजूदा लोकसभा के तीन वर्ष से ऊपर हो चले हैं। इन तीन सालों में आर्थिक उन्नति अपनी राह से डगमगा गई है, पर बहुसंख्यकवाद और सशक्त हुआ है। जाहिर है, लंगड़ाता विकास चुनावी दौड़ में पीछे रह जाएगा, इसलिए बलिष्ठ बहुसंख्यकवाद का आगे आना तय है। भाजपा पिछले चुनाव नतीजों से यह जानती है कि जब भी वह आक्रामक हिंदुत्व से हटी है, उसे चुनाव में नुकसान हुआ है। इसीलिए 2019 में वह अपने तेवर और कड़े करेगी। उसको मालूम है कि सिर्फ राम मंदिर बनाने की प्रक्रिया शुरू करने से उसका साढ़े तीन सौ सीटों का लक्ष्य पूरा नहीं होगा। उसको इससे आगे सोचना है।  वैसे जय श्रीराम, गर्व से कहो हम हिंदू हैं के नारों से लेकर सूडो सेक्युलरिज्म के सफाए तक भाजपा हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान की राह पर पुरजोर तरीके से अग्रसर रही है। बीच में अटल बिहारी नरम हिंदुत्व की ओर भटक गए थे और पार्टी को उसका खमियाजा भी भुगतना पड़ा था। भाजपा का नेतृत्व अब ऐसी गलती नहीं करेगा। वास्तव में 2014 के बाद, उसके सामने और अधिक आक्रामक बहुसंख्यकवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसके लिए वह हमें तैयार भी कर रही है, जिससे मिशन 350 सीटें कामयाब हो सके। राम मंदिर से आगे बड़ा दांव हिंदू राष्ट्र का वादा है, जो मतदाता को एकतरफा वोट डालने के लिए आंदोलित कर सकता है, जैसे 1984 में स्वत: हुआ था। वैसे, हिंदू राष्ट्र बहुसंख्यकवाद की तार्किक नियति है और शायद भारतीय लोकतंत्र की भी। हमें उसके लिए तैयार हो जाना चाहिए।

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