कसौटी पर शिक्षा

जब स्कूलों में ‘नो फेलिंग पॉलिसी’ यानी किसी को भी अनुत्तीर्ण नहीं करने की नीति आई थी, तभी से इसके खिलाफ बातें शुरू हो गई थीं। शिक्षा का अधिकार कानून की शायद सबसे जोरदार बात यही थी। विद्यार्थियों को इस नीति ने फेल होने के डर से मुक्त कर दिया। इस नीति को अब बदला जा रहा है तो सीधी बात यह समझ में आ रही है कि फेल होने के डर की वापसी हो रही है। ऐसा नहीं है कि जब यह नीति लागू हुई थी, तब इसके दायरे में सभी विद्यार्थियों को लाया गया हो। लेकिन इस नीति ने जिस कच्ची उम्र में बच्चों के मन पर इन बातों गहरा प्रभाव पड़ता है, उसमें बच्चों के भीतर से अनुत्तीर्ण होने का डर निकाल दिया था। इस नीति का विरोध करने वाले बड़ी संख्या में रहे हैं। ऐसे लोगों के मुताबिक विद्यार्थियों में फेल होने का डर होना चाहिए, क्योंकि इसी डर से तो वे पढ़ते हैं; अन्यथा उनकी पढ़ाई बाधित हो जाती है या फिर विद्यार्थी गंभीर नहीं रहते।

इन दलीलों के पीछे जाएं तो यह समझ में आता है कि हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को सीखने-सिखाने वाली बनाने या बनाए रखने के बजाय पास या फेल की मान्यता देनी वाली व्यवस्था के रूप में बनाया है या उसे ऐसा ही बनाए रखना चाहते हैं। विद्यार्थी का सीखना केंद्र में न रह कर उसके सीखने की जांच का केंद्र में आ जाना ऊपर से ही दिख जाता है, लेकिन किसी को इसकी जरूरत नहीं है। सबके लिए यह मुद्दा जरूरी हो जाता है कि विद्यार्थी अपनी आगे की कक्षाओं के लिए तैयार होकर नहीं आता।

पुरानी पीढ़ी के अध्यापकों की एक समस्या रही है कि वे विद्यार्थियों पर केंद्रित किसी बात पर भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि अगर किसी नीति में विद्यार्थियों की सुविधा को ही केंद्र में रख दिया जाए तो अध्यापकों का क्या महत्त्व बचेगा! इस विचार ने अनुत्तीर्ण न करने की नीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम सबसे पहले किया। दरअसल, इस नीति में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि बच्चों को सीखने के लिए वातावरण न दिया जाए या किसी संकल्पना को उनके स्तर तक लाकर न समझाया जाए। लेकिन ऊपर से विरोध दिखाते हुए भी अध्यापकों ने क्रमश: सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को औसत से भी नीचे ला खड़ा किया। उन्होंने इसे सीखने-सिखाने के नए अवसर के रूप में देखने के बजाय अपने आराम के रूप में देखा। फेल न करने की सारी बातें निचली कक्षाओं तक ही सीमित थीं, जहां न तो पाठ्यक्रम बहुत बड़ा होता है और न ही संकल्पनाएं इतनी जटिल कि उसके लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ जाए। इस अवस्था में अनुत्तीर्ण होने के झंझट से भी मुक्ति! यह ऐसा अवसर था जहां सीखने की प्रक्रिया खुले माहौल में होती। लेकिन इसके बजाय बचने का तरीका खोज निकाला गया और सीखना ठप्प पड़ गया।

विद्यालयी शिक्षा भारत में सबसे कम ध्यान दिया जाने वाला क्षेत्र है। उसमें भी शुरुआती कक्षाओं के बारे में सोचना या समझना तभी हो पाता है, जब कोई बड़ी बात सामने आ जाए। बहुत कम संस्थाएं हैं जो अध्यापकों को तैयार कर पाती हैं। बड़ी संख्या में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय ऐसे हैं जहां शिक्षक केवल कुछ दिनों के लिए कुछ कक्षाएं लेने जाते हैं या फिर उससे भी बचने के लिए किसी पदधारी को रिश्वत देने जैसे भ्रष्ट तरीके अपनाए जाते हैं। इसके बाद बात नौकरी की आती है तो उनके सौभाग्य और उनके भावी विद्यार्थियों के ‘दुर्भाग्य’ से नौकरी की परीक्षा में अध्यापन की बारीकियों के बजाय गणित, तर्कशक्ति और भाषा के सवालों के जवाब मांग कर उन्हें अध्यापक बना दिया जाता है। जहां यह प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, वहां तो हालात और खराब हैं। सरकारें खर्च बचाने के लिए शिक्षा मित्र भर्ती करती जा रही हैं और वहां फर्जी तरीके से प्राप्त किए जाने वाले अंक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। मतलब कि किसी भी प्रक्रिया में यह अपेक्षा ही नहीं है कि विद्यार्थियों या शिक्षा की नीतियों के प्रति अध्यापक की संवेदनशीलता कितनी है या फिर है भी या नहीं!

अखबारों में, सोशल मीडिया पर या फिर विद्यालयों में संभावित नई नीति को खुशखबरी की तरह देखा जा रहा है और व्यंग्य, उपहास और धमकी की तरह विद्यार्थियों को यह खबर दी जा रही है। लेकिन आठवीं में ही किसी विद्यार्थी को फेल कर देने को शर्म के रूप में देखने योग्य परिपक्व होना अभी बाकी है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि भारत सरकार रोजगार की बढ़ती मांग के अनुरूप रोजगार देना तो दूर, उसके अवसर भी खत्म करती जा रही है। ऐसे में निचले स्तर पर ही परीक्षा लेकर अनुत्तीर्ण कर देने और ‘अनुत्तीर्ण होने पर एक और अवसर देने’ की बातें किसी को सुनहरे भविष्य के बारे में सोचने के लिए अवश्य रोकेंगी। उनके मन पर पड़ने वाले प्रभाव को तो भूल ही जाइए!

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