Mahatma Gandhi Death Anniversary: देश की साम्प्रदायिकता आज भी गांधी को निश्चिंत सोने नहीं देती

हाल ही में गणतंत्र दिवस के दिन कासगंज में हुई सांप्रदायिक हिंसा हो या देश में इससे पहले भड़के जाने कितने साम्प्रदायिक विद्वेष हों, इनके बीज भारत में बरसों पहले स्वतंत्रता के चंद महिनों पूर्व कलकत्ता और नोआखली की सबसे भयानक सांप्रदायिक हिंसा में बोए हुए ही हैं। इन सुप्त पड़े बीजों में असमाजिक तत्व चंद स्वार्थों के लिए आज भी खाद पानी डाल देते हैं और हिंसा लाल रंग में लहलहा जाती है सांप्रदायिक हिंसा हमारे देश का अतिसंवेदनशील मुद्दा है, जिसे गांधी जैसे दृढ़प्रतिज्ञ नेता ही सुलझा सकते थे। आज महात्मा गांधीजी की पुण्यतिथि पर उनके इस रुप में उनको स्मरण करना अधिक प्रासंगिक है, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं भारत में मुस्लिम परस्त हूं और पाकिस्तान में हिंदू परस्त हूं।

साम्प्रदायिकता के दृष्टिकोण में गांधी के समय और वर्तमान समय में कोई बहुत ज्यादा फर्क आया नहीं है और न आएगा। साम्प्रदायिकता वही है, भड़काऊ उद्देश्य वहीं हैं, दलगत राजनीतियां वहीं हैं, आग को लपटों में बदलने वाली फूंकमार प्रवृत्तियां भी वहीं हैं, लोगों के शरीर और नाम बदल गए हैं, पर मानसिकता और सोच वही है, इन सभी समान वस्तुस्थितियों में यदि कुछ नहीं है, तो वह सिर्फ और सिर्फ गांधी हैं। अच्छा है गांधी नहीं हैं, शायद भारत की आजादी के सत्तर सालों बाद भी साम्प्रदायिकता की ऐसी घिनौनी तस्वीर से उनका सीना छलनी ही होता, जैसा बंदूक की तीन गोलियों ने किया था। शायद आज की साम्प्रदायिक घृणा उनके मुख से अंतिम शब्द हे राम भी न निकलने देती, क्योंकि मृत्युकाल में स्वाभाविक रुप से निकला राम शब्द भी अब साम्प्रदायिकता के कटघरे में आता है। राम बोलने वाले गांधी शायद साम्प्रदायिक माने जाने लगते।

हमेशा से हर व्यक्ति और समाज, हर दल और देश अपनी सहूलियत के हिसाब से इतिहास का विश्लेषण करता आया है और सम्भवतः इतिहास भी तत्कालीन इतिहासकारों की सहूलियत के दृष्टिकोण से रच दिया गया है। अतः गांधी की अहिंसा और साम्प्रदायिक सहृदयता को सत्य और असत्य की कसोटियों पर विभाजित करने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं रही है। ये वे ही वंशज हैं, जो आज भी भारत के छोटे छोटे हिस्सों में साम्प्रदायिक तिल को ताड़ बनाने का कोई मुद्दा गंवाना नहीं चाहते। क्योंकि वे आश्वस्त हैं कि अब भारत में कोई गांधी नहीं है और न आएगा। गांधी सदियों में एक बार ही अवतरित होते हैं और वहां शायद बरसों तक आएंगे भी नहीं जहां उनकी निःस्वार्थ संवेदनाएं अपनी सहूलियत के हिसाब से विश्लेषित की जाती हैं और उनकी हत्या कर देना कोई बड़ी बात नहीं होती।  

गांधी आज भी और भविष्य में भी इतिहास, साहित्य और समाज में विश्लेषण का विषय बने हुए हैं और बने रहेंगे, क्योंकि गांधी अब एक पुस्तक हैं। गांधी यदि विचार और मानसिकता के रुप में होते, तो या तो हिंसाएं होती ही नहीं और यदि भूलवश हो भी जातीं तो नोआखली की तरह हथियार डाल दिए जाते उस दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्तित्व के कदमों में, जो देश में साम्प्रदायिक शांति सचमुच चाहता था। परिहास करना अथवा मजाक बना देना जितना सरल होता है, उतना कठिन होता है उस स्तर की सोच तक पहुंचकर किसी गांधीनुमा चरित्र को समझ पाना। इसलिए परिहासों की संख्या असंख्य मिलती है, गांधी चरित्र एक ही होता है। भारत के लिए गांधी और गांधी चरित्र हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे, क्योंकि देश की साम्प्रदायिक असंवेदनाएं गांधी को हे राम बोलने के बाद भी निश्चिंतता से समाधिस्थ नहीं होने देतीं हैं।

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