खंडित स्वप्न
महात्मा गांधी संसदीय व्यवस्था के लिए कभी अधिक उत्साहित नहीं थे। वे उसकी तुलना वेश्या और बांझ औरत से करते थे। आज किसी भी नेता द्वारा की गई ऐसी तुलना के बाद देश का बौद्धिक वर्ग उसके ऊपर टूट पड़ता। उन्होंने संसद को एक ऐसी संस्था कहा जो स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकती, जिसके साथ सरकार खेलती रहेगी। साथ ही, इससे वे किसी रचनात्मक-उत्पादक कार्य की अपेक्षा भी नहीं करते थे। महात्मा गांधी भारत को लाखों स्वतंत्र ग्रामों का संघ बनाना चाहते थे। यही कारण था कि बापू के तथाकथित विचारों को लेकर अब तक देश में सबसे लंबे समय तक सत्ता की राजनीति करने वाले दल के भीतर इस विचार के लिए खूब आकर्षण था और उसकी समर्थक देश की बहुसंख्यक जनता में भी। बाद में कांग्रेस प्रणाली के टूटने और देश की राज्य सरकारों में अन्य विरोधी दलों के आ जाने के बाद यह सरकार की जरूरत भी बन गई। एक ऐसी संस्था के रूप में जिसे मजबूत बना कर विरोधी राज्य-सरकारों की भूमिका को कम किया जा सकता था। इस आदर्शवाद को ढोते-ढोते हमने सत्य से मुंह फेर लिया।
आज तमाम राज्यों में पंचायती राज संस्थाएं बिना उत्तरदायित्व के ढेरों अधिकारों वाली संस्था के रूप में उभर रही हैं। हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो हमारा दायरा बेहद छोटा हो जाता है। केंद्र-राज्य के मंत्रियों और उनके रिश्तेदारों द्वारा गलत तरीके से हासिल संपत्ति पर आकर हम रुक जाते हैं। क्या नीचे भ्रष्टाचार नहीं है? छोटे और आम-तौर पर निष्पक्ष न रहने वाले चुनावों में पहले तो जम कर खून-खराबा और हिंसा होती है और बाद में चुन कर आए प्रतिनिधि जल्द ही साईकिल से फॉर्च्यूनर-एंडेवर जैसी गाड़ियों में चढ़ने लगते हैं। ग्रामीण गणराज्य के इस गणपति का वैभव देखते ही बनता है। दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि बताती है कि इनकी जांच करने वाला कोई नहीं है और अगर है भी तो बेहद कमजोर है।