लता के रूप में दोबारा जन्म नहीं लेना चाहतीं मंगेशकर, जानिए उनकी कहानी
उनके चाहने वाले उनके बारे में कहते हैं- न भूतो न भविष्यति। उनकी मधुर आवाज की दुनिया दीवानी है। दुनिया उनकी जिंदगी में बेशुमार शोहरत, ग्लैमर के चटख रंग देखती है मगर वे दोबारा इस रूप में जन्म नहीं लेना चाहतीं। बात हो रही है लीजेंड सिंगर लता मंगेशकर की। जी हां, लता से जब एक इटरव्यू के आखिर में सवाल हुआ कि वे अगले जन्म में क्या बनना चाहेंगी, इस पर उनका जवाब था कि वे लता मंगेशकर तो बिल्कुल नहीं बनना चाहेंगी। लता मंगेशकर के शौक आम लोगों जैसे ही हैं, मगर क्रिकेट का शौक उनका अलबेला है। करीबी बताते हैं कि क्रिकेट के नियमों की बारीकियां भी उन्हें मालूम हैं। वे देश-विदेश में कई क्रिकेट मैच देख चुकीं हैं।
लता मंगेशकर की जिंदगी को करीब से जानने-समझने वालों में गीतकार जावेद अख्तर शामिल हैं। जी संगम चैनल पर क्लासिक लीजेंड्स प्रोग्राम में अख्तर लता की जिंदगी के अनछुए पहलुओं से जुड़ी जानकारी देते हैं। जावेद अख्तर का कहना है कि अगले जन्म में लता मंगेशकर न बनने की चाहत का जवाब सुनकर वह चौंके थे। बाद में उन्होंने जब गहराई से लता की जिंदगी में ताक-झांक की, तब पता चला कि वे आखिर क्यों नहीं लता बनना चाहतीं हैं।
जावेद अख्तर कहते हैं- लता ने जिंदगी में क्या-क्या दुख नहीं देखे। उन्होंने जद्दोजहद की जिंदगी देखी। बचपन में दुखों का पहाड़ उठाना पड़ा। पिता दीनानाथ न सिर्फ बहुत बड़े संगीतकार थे बल्कि रंगमंच का अभिनय भी करते थे। उन्होंने तीन मराठी फिल्में बनाईं मगर फ्लॉप रहीं। जिसके कारण कंपनी बंद करनी पड़ी। आर्थिक नुकसान के कारण 1941 में घर बेचकर मंगेशकर परिवार पुणे आ गया। इस बीच मंगेशकर की सेहत जवाब दे गई। 1943 में दीनानाथ मंगेशकर की मौत हो गई। तब लता की उम्र 14 साल की थी। पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण परिवार का भार कम उम्र में उनके ऊपर आ पड़ा। उस वक्त प्ले बैक सिंगिंग का चलन नहीं था। छोटे-मोटे रोल मिलते थे। आठ से 10 साल की उम्र में यह बालिका स्टेज पर गाने लगी। इससे होने वाली कमाई से परिवार का खर्च चलता था।
बचपन में पिता ने पहचानी प्रतिभा:जावेद अख्तर बताते हैं कि दीनानाथ मंगेशकर घर पर संगीत की शिक्षा देते थे। वे एक दिन अपने एक शिष्य को शिक्षा दे रहे थे। फिर पिता मंगेशकर कमरे से बाहर निकल आए। उस वक्त लता संगीत की शिक्षा नहीं ले रहीं थीं। मगर उनके घर में हवाओं में संगीत की शिक्षा घुली हुई थी। लता ने देखा कि पिता का शिष्य गाने को सही से नहीं गा रहा है। यह देखकर लता कमरे में पहुंचीं और लड़के से कहा- तुम वैसा नहीं गा रहे हो,जैसा पिताजी ने गाया है। फिर लता ने खुद गाकर सुनाया। यह सुन जहां लड़का हैरान रह गया वहीं पीछे मौजूद खुशी से निहाल हो उठे। उन्होंने पत्नी से कहा कि हमारे घर में ही बड़ी प्रतिभा छिपी हुई है।
और जिंदगी पर फिट हुआ गाना: जावेद अख्तर कहते हैं कि 1943 में लता ने पहला हिंदी गाना गाया। शब्द रहे-हिंदुस्तान वालों अब तो मुझे पहचानो…। वाकई कुछ ही बरसों में हिंदुस्तान और पूरी दुनिया ने उन्हें पहचाना। 1945 में मंगेशकर परिवार पूना छोड़कर मुंबई चला आया। तब लता की मुलाकात मास्टर विनायक से हुई और उनकी मदद से नाना चौक में मंगेशकर परिवार को छोटा सा घर मिल गया। दुखों ने यहीं पीछा नहीं छोड़ा। मास्टर विनायक भी दुनिया से चले गए। फिर मुश्किल शुरू हुई।
इसके बाद लता की मुलाकात मास्टर गुलाम हैदर से हुई। हैदर ने उन्हें उस जमाने के बड़े प्रोड्यूसर मुखर्जी से मिलवाया। तब मुखर्जी फिल्म शहीद बना रहे थे। हैदर ने कहा कि उनकी फिल्म के लिए लता गा सकती हैं। मुखर्जी ने लता का गीत सुनकर कहा किआवाज ठीक नहीं है, पतली है। उन्होंने लता को रिजेक्ट कर दिया। मगर गुलाम हैदर को लता की प्रतिभा पर पूरा भरोसा था। 1948 में मजबूर फिल्म में जब लता को गाने का मौका मिला तो उन्होंने सबको चौंका दिया। 1960 में लंदन के मशहूर अल्बर्ट हॉल में लता को गाने का मौका मिला। तब दिलीप कुमार ने उनका सबसे परिचय कराया था। उस जमाने में अल्बर्ट हॉल में गाने का मौका मिलना ही बड़ी बात मानी जाती थी। इसके बाद से लता ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।