कसाब और याकूब मेमन की फांसी कराने वाली पुलिस अधिकारी ने बताया, कैसे गुजरे दोनों आतंकियों के आखिरी पल
मुंबई 26/11 के दोषी अजमल केस में गुपनीयता बनाए रखना सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती थी। गोपनीयता बनाए रखने को लेकर पूर्व उपमुख्यमंत्री और गृह मंत्री आर.आर. पाटिल बहुत दृढ़ थे। कोर्ट मिले ऑर्डर के बाद कसाब को आर्थर रोड़ जेल से यरवदा जेल (जहां कसाब को फांसी होनी थी) में शिफ्ट करना एक बहुत बड़ा टास्क था, जिसमें कई एजंसियां शामिल थीं और इस कार्य को अच्छे से करना एक चुनौती थी। महाराष्ट्र की पूर्व इंस्पेक्टर जनरल मीरन चड्ढा बोर्वान्कर ने बताया कि कसाब को फांसी देने के ढाई साल बाद याकूब मेनन को फांसी दी जानी थी इसलिए हमें बहुत ही सहजता के साथ काम करना था।
शनिवार को बोर्वान्कर ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डिवेलेपमेंट के डाटरेक्टर जनरल पद से रिटायर हुई हैं। बार्वान्कर देश की एकलौती महिला आईपीएस हैं जो कि फांसियों की गवाह हैं। द संडे एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में अपने 36 वर्षीय के कैरियर में बोर्वान्कर ने 2012 में कसाब और 2015 में मेनन की विवादित और चुनौतीपूर्ण की फांसी पर बात की। बोर्वान्कर ने कहा कि कसाब मुंबई स्थित आर्थर रोड जेल में आईटीबीपी की कस्टडी में था और हमें उसे वहां से पुणे यरवदा जेल लेकर जाना था। कसाब को बेहोश करके क्राइम ब्रांच टीम को सौंपा गया था। जेल विभाग से हमने आईजी रैंक के अधिकारी को भेजा था जो कि कसाब को पुणे लानी वाली टीम का नेतृत्व करते।
बोर्वान्कर ने कहा कि हमें अंदेशा था कि रास्ते में हमला हो सकता है क्योंकि देश में कई ऐसे थे जिन्हें लगता था कि 26/11 हमले में कसाब का कोई रोल नहीं था। हाइवे पुलिस को पहले ही सूचित कर दिया गया था राज में कोई वीआईपी काफिला गुजरने वाला है और कसाब को मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे से बिना किसी की जानकारी के लाया जा सका। जिस दिन कसाब को फांसी दी जानी थी उस दिन राकेश और आर.आर पाटिल सर ने मुझे फोन किया था जिसके बाद मैंने यरवदा जेल जाने का फैसला लिया। मैं अपनी गाड़ी नहीं ले सकती थी क्योंकि मीडिया को भनक हो जाती इसलिए मैं अपने गनर के साथ उसकी मोटरसाइिल पर बैठकर जेल पहुंची। एसपी और डीआईजी भी बिना सरकारी गाड़ी के जेल पहुंचे और हम सभी ने वो रात जेल में ही बिताई।
कसाब के अखिरी मोमेंट के बारे में पूछा गया तो बोर्वान्कर ने कहा कि मीडिया रिपोर्ट में केवल कसाब के आखिरी शब्दों और आखिरी इच्छा की अटकलें लगाई जा रही थीं। मुझे नहीं लगता कि कसाब को कोई भी समझ थी कि उसके साथ क्या हो रहा है। वह काफी परेसान लग रहा था। 21 नवंबर की सुबह हम उसे फांसी के लिए लेकर गए। नियमों के अनुसार डॉक्टरों, मजिस्ट्रेट और पुणे कलेक्टर फांसी के समय वहां मौजूद थे। कसाब को फांसी लगाने के बाद हमनें उसके धर्म के हिसाब से उसका अंतिम संस्कार किया। जब बोर्वान्कर से पूछा गया कि क्या कोई कसाब की बॉडी का दावा किया था तो उन्होंने इससे इनकार किया।
उन्होंने बताया कि भारत सरकार ने पाकिस्तान हाई कमीशन को कसाब की फांसी के बारे में जानकारी दी थी लेकिन उन्होंने अपने जवाब में कहा कि कसाब उनके देश का नागरिक नहीं है इसलिए वे उसकी बॉडी के साथ कुछ नहीं कर सकते। कसाब की फांसी के ढाई साल बाद बोर्वान्कर जो कि अब डीआईजी बन चुकी थीं, उनके सामने फिर से पहले जैसी चुनौती थी। इस बार उन्हें 1993 मुंबई ब्लास्ट केस के दोषी याकूब मेनन की फांसी के ऑपरेशन को पूरा करना था। इस पर बोर्वान्कर ने कहा कि मेनन की फांसी के लिए हमने उसी टीम का इस्तेमार किया जिसने कसाब के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।