National Science Day 2018: भारत सही अर्थों में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाना चाहता है
डॉ. शुभ्रता मिश्रा, गोवा: सर सी. वी. रमन ही एकमात्र विशुद्ध वे भारतीय वैज्ञानिक हैं, जिन्हें 1930 में भौतिकशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था, शेष तीन हरगोविन्द खुराना, सुब्रमण्यन चन्द्रशेखर और वेंकटरमण रामकृष्णन सिर्फ भारतीय मूल के वैज्ञानिक हैं, जिन्हें नोबेल मिला। हम सन् 1986 से हर वर्ष 28 फरवरी को सर सी. वी. रमण की अद्भुत खोज रमन प्रभाव की स्मृति में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाते आ रहे हैं। राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने भारत के वैज्ञानिक संस्थानों में होने वाले शोधों के प्रति समाज के जुड़ाव और समग्र राष्ट्र में विशेषरुप से भारतीय युवाओं में वैज्ञानिक सोच जाग्रत करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय विज्ञान दिवस जैसी परिकल्पना को साकार रुप दिया गया है।
प्रश्न यह उठता है कि हम बेहद सकारात्मक उद्देश्य को लेकर बहुत से अच्छे कामों की शुरुआत करते हैं, लेकिन जब उनका सिंहावलोकन करते हैं, तो एक लम्बे समय के बाद भी उनमें बहुत अधिक धनात्मक उठाव नजर नहीं आता है। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के मूल उद्देश्य में भी यही भावना रखी गई थी कि युवा विद्यार्थियों को विज्ञान के प्रति आकर्षित व प्रेरित किया जा सके, जिससे देश को अधिक से अधिक प्रतिभावान वैज्ञानिक मिल सकें। लेकिन हकीकत बहुत खुश करने वाली तो नहीं कही जा सकती। देश में निःसंदेह उच्चस्तरीय व उत्कृष्ट वैज्ञानिक शोध संस्थान हैं, लेकिन जब विश्वस्तर पर आंकड़े आते हैं, तो उस फेहरिस्त में भारत का स्थान बहुत बहुत पीछे होता है।
हाल ही में करेंट साइंस के जनवरी 2018 अंक में प्रकाशित एक लेख में भारत की चार प्रमुख वैज्ञानिक एजेंसियों वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की भारत और विश्व में रैंकिंग दर्शाई गई है। इसमें सन् 2017 में विश्वस्तर पर सीएसआईआर का 75वां, आईसीएआर का 491वां, डीआरडीओ का 569वां और इसरो का 638वां स्थान है। सीएसआईआर के अन्तर्गत आने वाले देश के अन्य शोध संस्थानों की रैंकिंग भी निराशाजनक ही है। हालांकि सन् 2009 की तुलना में इनकी रैंकिंग थोड़ी सी ऊपर आई है।
ये आंकड़े तीन बातों पर सोचने के लिए मजबूर करते हैं। एक, कि क्या विज्ञान के विश्वस्तरीय प्रतिष्ठित जर्नलों में शोधपत्रों की संख्या का अधिक होना ही उच्चश्रेणी के वैज्ञानिक कार्यों का परिचायक कहा जाए? और दूसरा, कि क्या हमारे शोध संस्थानों में युवाओं को एक संतोषजनक वैज्ञानिक वातावरण में वाकई शोध करने मिल रहे हैं? और तीसरा, कि क्या स्कूली स्तर से लेकर कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों तक की वैज्ञानिक पढ़ाई में भारतीय बच्चे सही मायने में विज्ञान को प्रायोगिक और सैद्धांतिक तौर पर अध्ययन कर पा रहे हैं?
निःसंदेह ये तीनों प्रश्न उठे ही इसलिए हैं कि ऐसा हो नहीं पा रहा है। भारत में अमूमन हर प्रश्न के कारण व्यवस्थाओं पर जाकर ठहर जाते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में पल रहे इन तीन असंतोषों की जड़ों में भी व्यवस्था का सुप्रबंधन न होना ही अधिक समझ में आता है। हम दिखावा बहुत करते हैं या यूं कहें कि ऐसी प्रवृत्ति बन गई है। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस उसी प्रवृत्ति का एक शिकार होकर रह जाता है। बड़े बड़े समारोह, बड़ी बड़ी कागजी उपलब्धियां एक सीमा तक आकर्षित करती हैं, लेकिन फिर उतनी ही गहरी उदासी भी दे जाती हैं। तभी भारत विज्ञान में 1930 के बाद से कोई नोबेल नहीं ला पाता है।
तीसरे कारण को पहले समझना जरुरी है, क्योंकि भारत में विज्ञान के उत्कृष्ट न बन पाने की व्यथा यहीं से शुरु होती है। हमारे यहां ग्यारहवीं कक्षा से बच्चे विषय चुनते हैं और जो विज्ञान को अपनी भावी मंजिल बनाना चाहते हैं, उनके प्रारम्भिक स्कूली दो साल लगभग तीस साल से चली आ रही किताबों के पाठ्यक्रमों को रटकर येनकेन प्रकारेण अच्छे नम्बर लाने में निकल जाते हैं। कुछ कभी-कभार परखनली पकड़ना सीख लेते हैं, कहीं कहीं यह भी नसीब नहीं होता। अच्छे अच्छे माने स्कूलों में भी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थितियां संतोषजनक नहीं कही जा सकतीं, तो फिर बेचारगी का तमगा पहने सरकारी स्कूलों का ज़िक्र निरा बेमानी होगा। प्रायोगिक विज्ञान की लगभग कमोवेश यही स्थिति कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की लैबों में मिल जाएगी। वित्तीय सहायताएं प्रतिवर्ष मिलती हैं, ऐसा आंकड़े कहते हैं, पर दिखता नहीं है ऐसा हकीकत कहती है। इन विरोधाभासों में भारतीय युवा विज्ञान पढ़ रहा है, विज्ञान कर रहा है। परिणाम का विश्वस्तरीय आ पाना अपने आप में उत्तर दे जाता है।
ऐसा अप्रशिक्षित तरुण जब युवा अनुसंधानकर्ता के रुप में जेआरएफ और एसआरएफ या ज्यादा से ज्यादा आरए बनकर किसी अस्थायी वैज्ञानिक परियोजना में काम करने लगता है, तो भी उसे कोई वैज्ञानिक प्रशिक्षण मिलने जैसी सुविधा नहीं होती है। कहा जाता है कि हमारे यहां जीएसआई एक ऐसा संस्थान है जहां प्रोजेक्ट के पहले शोधकर्ताओं को फील्ड प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन बाकी किसी संस्थान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। लैब में थोड़ा बहुत अपने से वरिष्ठ शोधकर्ताओं से कुछ झूठन स्वरुप सीखने मिल गया, वही बड़ी बात होती है। यहां से भारतीय युवा वैज्ञानिक क्षेत्र में व्यवस्थाओं का शिकार होना शुरु हो जाता है।
हमारे देश में वित्तपोषित वैज्ञानिक परियोजनाओं का चलन है, शोधार्थी आते हैं, शोधवृत्ति लेते हैं, शोधप्रबंध और रिपोर्टें भी तैयार होती हैं, लेकिन उनसे वे शोधपत्र नहीं बन पाते, जो विश्वस्तरीय जर्नलों में प्रकाशित हो सकें। कभीकभार विदेश यात्राओं के मौके मिल जाते हैं, बाहर के संस्थानों का दौरा हो जाता है, कुछ बाहरी लोगों के साथ मिलकर एक दो पेपर निकल आते हैं। साररुप में देखें तो इस सबमें वो विज्ञान, वो वैज्ञानिक पिपासा, वो जुनून, वो नोबेल महत्वाकांक्षा कहां है जो सी.वी. रमन में थी, कि स्वीडन का हवाई टिकट बहुत पहले ही करवा लिया था और नोबेल की घोषणा बाद में हुई थी। ये था वो दृढ़ विश्वास अपनी खोज पर, क्या ऐसा आत्मविश्वास आज हमारा युवा महसूस कर पा रहा है, नहीं क्योंकि विश्वास के लिए परिपक्वता का होना बहुत जरुरी होता है। परिपक्वता प्रायोगिक प्रशिक्षण, सतत् अन्वेषण और एक विशुद्ध वैज्ञानिक वातावरण से ही आ पाती है।
हमें कागजों से बाहर निकलना होगा, वित्तपोषण से स्वयं को मुक्त करना होगा, ऐसा नहीं है कि 1930 के बाद से कोई रमण भारत में न जन्मा होगा, क्या एक रमण के प्रकीर्णन से कई रमण नहीं बने होंगे। निश्चित ही बने होंगे, बस व्यवस्था के एक प्रिज्म को सही दिशा में रखने की दरकार है, नहीं तो हमारा भारत भी वर्ष की हर तिथि में राष्ट्रीय दिवस बना पाने की क्षमता रखता है।