तर्क नहीं तुर्रा

भारत में जब भी बुलेट ट्रेन की बात होती है कुछ लोगों द्वारा एक थका राग छेड़ दिया जाता है कि पहले भारतीय रेल ठीक कर दो, उसके बाद बुलेट ट्रेन चलाना! यह तर्क नहीं तुर्रा है! इस तुर्रे से ग्रस्त गांव का गरीब अपने बच्चों को बताता है कि नए कपड़े पहनना अमीरों का काम है, उसकी जिंदगी का सरोकार तो फटे-पुराने या पैबंद लगे वस्त्रों से ही है। इस तुर्रे से ग्रस्त करोड़ों लोग दशकों तक यही सोचते रहे कि उनकी प्राथमिकता बच्चे का पेट भरना है न कि स्कूल भेजकर कलक्टर बनाना। आम आदमी छोड़िए, यही तुर्रा देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरूजी के दिमाग में भी बैठा था और उन्हें लगता था कि उनकी प्राथमिकता देश की गरीबी-भुखमरी से लड़ना है, लिहाजा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के झंझट में पड़ने की भारत को जरूरत नहीं है!

आजादी के वक्त हमारे पास 54000 किलोमीटर रेल पटरियां थीं, जबकि चीन के पास केवल 27000 किलोमीटर और उनमें भी काम आने लायक केवल 8000 किलोमीटर थीं। आज चीन में करीब सवा लाख किलोमीटर पटरियों पर ट्रेनें दौड़ती हैं और हम 70 सालों में पुराने ढर्रे की 11-12 हजार किलोमीटर रेल पटरियां जोड़ पाए हैं। चीन ने 14 साल पहले 2003 में हाइस्पीड ट्रेन की शुरुआत की थी और आज 16000 किलोमीटर पटरियों पर हाइस्पीड पर ट्रेनें दौड़ रही हैं। दरअसल, दिक्कत यह है कि हम जिंदगी का बुनियादी फंडा अभी तक समझने को तैयार नहीं हैं कि केवल समस्याओं पर फोकस करके आप भविष्य की दौड़ में कभी शामिल नहीं हो सकते। गरीब के बेटे को पेट भरने के लिए तो मेहनत करनी ही होगी, लेकिन डॉक्टर, इंजीनियर या आइएएस बनने के लिए वह सब भी करना ही होगा जो एसी में बैठ कर पढ़ रहा अमीर का बेटा कर रहा है। जहां पर समझौता करना होगा वहां एक वक्त भूख की तकलीफ वह सह लेगा लेकिन परीक्षा के लिए किताब खरीदकर लाएगा। अगर तुर्रे की सोच पर चलते तो आज भी यही कह रहे होते कि सड़क के गड््ढे भरे नहीं, हवाई जहाज कैसे चलाने लगें?

अगर आपको रेल दुर्घटना पर लगता है कि बुलेट ट्रेन नहीं चाहिए, पहले सरकार पैसेंजर गाड़ी को ठीक करे, तो आप तुर्रे को छोड़िए, तर्क समझिए। बुलेट ट्रेन के लिए जापान तकरीबन एक लाख करोड़ का निवेश कर रहा है। यह साहूकार का कर्ज नहीं है कि जहां चाहो वहां खर्च कर दो! अगर सरकार बुलेट ट्रेन नहीं बनाती तो जापान ये एक लाख करोड़ नहीं देता। उधर भारतीय रेलवे में निजी या विदेशी निवेश होने नहीं दिया जाता और बिना पैसे के कुछ होता नहीं! इसलिए छप्पर में लाठी लगाने और पॉलिथीन बांधने में मेहनत जरूरी है नहीं तो बारिश बहा ले जाएगी। लेकिन कहीं से पक्का मकान बनने की गुंजाइश बन रही है तो उस पर हायतौबा मत मचाइए!

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