दंडशुल्क का दंश
करीब साढ़े चार महीने पहले जब एसबीआई यानी भारतीय स्टेट बैंक ने खातों में निर्धारित मासिक औसत राशि नहीं रखने पर शुल्क से संबंधित नियम लागू किया था, तभी इसकी सख्त आलोचना हुई थी। लेकिन एसबीआई ने उसकी कोई परवाह नहीं की थी। अब उसने कहा है कि उसे हाल के दिनों में इस मसले पर उपभोक्ताओं की ओर से काफी प्रतिक्रियाएं मिली हैं और बैंक मासिक न्यूनतम राशि बरकरार रखने वाले शुल्क से संबंधित उन नियमों की समीक्षा कर रहा है। दरअसल, बैंकों में न्यूनतम राशि का नियम गरीब तबकों के लिए एक बड़ी बाधा है, इसलिए सरकार ने साधारण लोगों को खाता खुलवाने के लिए जीरो बैलेंस जैसी सुविधा की घोषणा की थी। लेकिन एसबीआई ने इसी नियम को अपनी कमाई का जरिया बना लिया। हाल ही में सूचनाधिकार कानून के तहत सामने आई जानकारी के मुताबिक एसबीआई ने इस प्रावधान का इस्तेमाल करके सिर्फ अप्रैल-जून की पहली तिमाही में अपने खाताधारकों से दो सौ पैंतीस करोड़ रुपए की कमाई कर ली। दूसरे बैंक भी इसी रास्ते पर हैं। इसके अलावा, रिजर्व बैंक की मनाही के बावजूद नोटबंदी के दौरान एसबीआई के एटीएम से पैसा निकालने पर भी शुल्क काटे गए थे।
यह किसी से छिपा नहीं है कि अपनी छोटी बचत को खाते में रखने के लिए सरकारी बैंकों का सहारा लेने वाले ज्यादातर लोग गरीब और कम आयवर्ग के होते हैं। जबकि बड़ी रकम का लेनदेन करने वाला व्यवसायी वर्ग या दूसरे लोग ज्यादा सुविधाएं और ब्याज हासिल करने के मकसद से निजी बैंकों को प्राथमिकता देते हैं। यह भी जगजाहिर तथ्य है कि बैंकों में जमा पैसे आमतौर पर बड़े उद्योगपतियों को कर्ज की सुविधा मुहैया कराने के काम आते हैं। हाल के दिनों में नहीं वसूले जा सकने वाले कर्ज को लेकर काफी सवाल उठे हैं। सवाल है कि बैंक आखिर किसकी सेवा के लिए हैं! देश में आज भी एक बड़े तबके की आय इतनी नहीं है कि वह अपने रोजमर्रा के खर्च के बजाय बैंकों में पैसा जमा करने को प्राथमिकता दे। शायद यही वजह रही कि जब सरकार ने जीरो बैलेंस पर जनधन खाता खुलवाने की सुविधा मुहैया कराई तो करोड़ों लोगों ने इसका लाभ उठाया। पहले भी बैंकों में खाताधारियों की बड़ी तादाद ऐसी थी, जिनके लिए हजार-दो हजार की छोटी रकम भी भारी थी। लेकिन इसी बीच एसबीआई ने एक अप्रैल को अचानक न्यूनतम मासिक औसत राशि की शर्त लागू कर दी, जिसके मुताबिक महानगरों में पांच हजार, बाकी शहरों में तीन हजार और ग्रामीण क्षेत्रों में एक हजार रुपए की रकम तय की गई।
अव्वल तो यह रकम थोपना ही अपने आप में एक विचित्र फैसला था, दूसरे ऐसी तमाम शिकायतें सामने आर्इं जिनमें छोटे शहरों में स्थित बैंकों के ग्राहकों के सामने न्यूनतम औसत राशि को लेकर भ्रम बना रहा और उसे दूर करने के कोई इंतजाम नहीं किए गए। जानकारी और जागरूकता के अभाव में ज्यादातर लोगों ने कोई सवाल नहीं उठाए। लेकिन इस बीच देश भर में इस नियम के तहत बैंकों ने ग्राहकों के खाते में बचे हुए पैसे दंडस्वरूप चुपचाप काटने शुरू कर दिए। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर किसी गरीब व्यक्ति के खाते में दो हजार रुपए थे और न्यूनतम औसत राशि के नियम के तहत दो-तीन महीने के भीतर उसके आधे से ज्यादा पैसे काट लिए गए तो उसे कैसा महसूस हुआ होगा! ऐसे में न्यूनतम मासिक औसत राशि के नियम को पूरा नहीं करने पर शुल्क या एटीएम की सीमित पहुंच और बाकी असुविधाओं को देखते हुए एक खास संख्या से ज्यादा बार पैसे निकालने पर लगाए जाने वाले टैक्स का औचित्य नहीं बनता!