आॅस्कर की आस

आॅस्कर अब भी संभावना है। आॅस्कर कल भी एक संभावना थी। हमारे भारतीय, विशेषकर हिंदी फिल्मकारों के लिए वह दिवास्वप्न सरीखा है। एक ललक की तरह है जिसका रसीला आकर्षण कम होने का नाम ही नहीं लेता। अभी राजकुमार राव की फिल्म न्यूटन को आॅस्कर के लिए भेजा गया है, प्रचार इसी बात का किया गया प्रदर्शन के वक्त। क्या परीक्षा में बैठना और चयन हो जाने का सुख बराबर है? शायद नहीं। आइएएस कौन नहीं बनना चाहता? लेकिन उसकी परीक्षा में बैठने वाले सभी चयनित हो जाएं, ऐसा कहां होता है? आॅस्कर पुरस्कार सिनेमा में समग्रता में उत्कृष्टता के लिए प्रदान किया जाता है। उसके विविध तकनीकी पक्षों के असाधारण होने पर प्रदान किया जाता है। मुंबइया सिनेमा, जिसे बॉलीवुड कहा जाता है, साल में लगभग नब्बे प्रतिशत विफल फिल्म बनाने वाली इस इंडस्ट्री में कौन इस तैयारी के साथ फिल्म निर्माण शुरू करता है कि उसे आॅस्कर जीत कर लाना है? हमारी महत्त्वाकांक्षाएं लोमड़ी की तरह बस उछाल मारती हैं, और अंगूर खट्टे हैं, कह कर लौट आती हैं।

कुछ समय पहले जब अनुराग बासु की फिल्म बरफी को समीक्षकों की सराहना भी मिली तो इसके आॅस्कर में बतौर प्रविष्टि भेजे जाने की खबरें आम होने लगीं। सच बात तो यह है कि मदर इंडिया के समय से आज न्यूटन तक अनेक फिल्मों को आॅस्कर के लिए विचारार्थ भेजने के जतन हुए लेकिन पुरस्कार मिलने के मामले में अंगूर खट्टे ही रहे हैं। मदर इंडिया को भारतीय सिने-इतिहास की एक अत्यंत मर्मस्पर्शी और सशक्तकृति माना जाता है। महबूब खान निर्देशित इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा में भारतीय स्त्री के संघर्ष और उसकी अंतर्शक्तिको बड़े प्रबल और आदर्श स्वरूप में प्रस्तुत करते हुए देश के समकालीन विद्रूप और स्त्री की दशा को भी रेखांकित किया था। अपने देश में बड़े-बड़े पुरस्कार, कीर्तिमान और प्रतिष्ठा से विभूषित इस फिल्म को बड़े उत्साह से आॅस्कर में भेजा गया था। यह फिल्म आॅस्कर के लिए नामांकित भी हुई थी मगर प्रतिस्पर्धा में मात खा गई। इस फिल्म को आॅस्कर में पुरस्कार न मिलना घोर निराशा के रूप में देखा गया था। प्रविष्टि से पहले खामी यह थी कि भेजते हुए यह संभव न हो सका था कि अंग्रेजी उपशीर्षक वाला संस्करण भेजा जाना चाहिए था। आॅस्कर के लिए न केवल हिंदी बल्कि दक्षिण भारतीय भाषाओं सहित बांग्ला फिल्में भी बतौर प्रविष्टि भेजी गई थीं लेकिन सलाम बॉम्बे, लगान, एकलव्य फिल्में स्पर्धा तक पहुंच कर भी पुरस्कार न पा सकीं। किसी भी श्रेणी में इन फिल्मों को पुरस्कार न मिल पाना भी ऐसे प्रयासों को हतोत्साहित करने वाला रहा। सलाम बॉम्बे 1988, लगान 2001 और एकलव्य 2007 में आॅस्कर के लिए प्रविष्ट हुर्इं। बाद में आमिर खान ने अपनी फिल्मों तारे जमीं पर और पीपली लाइव को भी आॅस्कर में भेजना चाहा था लेकिन ये फिल्में भी शामिल नहीं हो पाई थीं। विधु विनोद चोपड़ा की विफल फिल्म एकलव्य का आॅस्कर में जाना चर्चा का विषय रहा। यह बात अलग थी कि फिल्म को वहां भी कोई तवज्जो नहीं मिली लेकिन एकलव्य को आॅस्कर में विचार के लिए शामिल कर लेने वाली बात को लेकर धर्म फिल्म की निर्देशिका भावना तलवार ने काफी बयानबाजी की थी। उनको मलाल यह था कि धर्म क्यों नहीं स्वीकार की गई? धर्म, पंकज कपूर अभिनीत एक विचारोत्तेजक फिल्म थी, जिसे आलोच्य प्रशंसा तो मिली लेकिन व्यापक प्रदर्शन और दर्शक सुख न मिल सका।

बिमल राय की मधुमति, सत्यजित रे की अपूर संसार, महानगर और शतरंज के खिलाड़ी, अबरार अलवी की साहिब बीवी और गुलाम, विजय आनंद की गाइड, सुनील दत्त की रेशमा और शेरा, एमएस सथ्यू की गरम हवा, मणि रत्नम की अंजलि और नायकन, महेश भट्ट की सारांश, श्याम बेनेगल की मंथन, भारतन की थेवर मगन, शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन, कल्पना लाजमी की रुदाली, सलीम अहमद की अदामिंते माकन अबू, परेश मोकाशी की हरिश्चश्द्राची फैक्ट्री आदि फिल्मों को लेकर भी उनके निर्देशकों में इस बात का उत्साह हुआ था कि ये फिल्में आॅस्कर के लिए विचार के दायरे में आएं, प्रतिस्पर्धा में शामिल हों मगर आरंभिक चरण में ही ये फिल्में खारिज हो गर्इं। महान फिल्मकार सत्यजित रे की तीन फिल्में अपूर संसार, महानगर और शतरंज के खिलाड़ी को भी उस समय प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं किया गया लेकिन मरणासन्न अवस्था में उन्हें उनके कृतित्व और अवदान के लिए आॅस्कर का विशेष पुरस्कार 1992 में आॅस्कर के प्रतिनिधि ने कोलकाता जाकर प्रदान किया।  भारतीय सिनेमा, खासकर हिंदी सिनेमा और उसमें भी बॉलीवुड की समस्या यही है कि अब यहां बनने वाली फिल्में गहरी असुरक्षा की शिकार दिखाई देती हैं। आॅस्कर में जो फिल्में अब तक पुरस्कृत होती आई हैं, उन्हें निष्पक्ष भाव से देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी हम अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों, खासकर आॅस्कर जैसे पुरस्कारों के प्रतिमान के हिसाब से काफी पिछड़े हैं। +

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