गांव की ओर

गांधीजी ने कहा था कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है, लेकिन आज बदलाव के दौर में यह परिभाषा बदलती जा रही है। गांव के लोग अब शहर की ओर कदम बढ़ा रहे हैं और शहर की संस्कृति गांवों में अपने पैर पसार रही है। गांव तो जिंदा हैं मगर गांव की संस्कृति मर रही है। शहर की चकाचौंध और आकर्षण भरा वातावरण हर किसी को भाता है। अक्सर लोग रोजगार की तलाश या पढ़ाई के लिए शहर की ओर रुख तो करते हैं पर बहुत कम होते हैं जो कार्य पूरा होने पर वापस गांव में जा बसे हों। गांव के पिछड़ने का यह भी एक बहुत बड़ा कारण है कि आज के दौर में बुद्धिजीवी वर्ग का निवास स्थान भी शहर ही है। आमतौर पर शहरी लोगों के लिए गांव महज एक पिकनिक स्थल से ज्यादा और कुछ नहीं है जहां शहर की एशोआराम की जिंदगी से ऊब कर एक-दो दिन हवा-पानी बदलने के लिए तो जाया जा सकता है, पर वहां रहना असंभव है।

यह बात जान कर हैरानी होती है कि आज के दौर में गांव को बचाना किसी भी लिहाज से किसी के लिए भी एक चुनौती नहीं है, बल्कि गांव में विकास का मतलब उसका शहरीकरण कर देना रह गया है। सरकार और आम लोगों का पूरा ध्यान इस बात पर है कि गांवों को किसी भी तरीके से शहरी ढर्रे पर स्थापित किया जा सके। वैश्वीकरण के इस आपाधापी वाले विकास में सबसे अधिक नुकसान गांव की आत्मा कही जाने वाली खेती को हुआ है। खेती तो है पर खेती करने वाले कम हो रहे हैं। सरकार की योजनाएं भी शहरी बाबू पर अधिक मेहरबान होती हैं और किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रह जाते हैं। परिणाम यह हुआ है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए। आज खेती महज एक निम्न स्तरीय व्यवसाय बन कर रह गई है। यह हमारी शहरी और तथाकथित बुद्धिजीवी सोच का नतीजा है जिसमें माना जाता है कि खेती करना केवल उनका काम है जो गरीब, बेरोजगार हैं या जिनके पास कोई खास डिग्री नहीं है।

गांव की यह हालत शायद इसलिए भी है कि हमारे देश में जिन लोगों को गांव के विकास की जिम्मेदारी सौंपी जाती है वे खुद ही गांव के रहन-सहन, उसकी विरासत और परिवेश से कोई खास जुड़ाव नहीं रखते हैं। सवाल है कि ऐसा व्यक्ति, जो गांव में कभी रहा ही न हो, वह गांव की संस्कृति कैसे बचाए रखने की बात कर सकता है? यही कारण है कि आज गांव न सिर्फ आकर्षण खो रहा है बल्कि वह हमारी मुख्यधारा की चीजें जैसे साहित्य और फिल्मों से भी दूर हो रहा है। साहित्य को तो फिर भी गांवों से जोड़ कर देखा जा सकता है पर फिल्मों पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव इतना मजबूत है कि वहां अब गांव को ढूंढ़ पाना मुश्किल है। यह बात सर्वविदित है कि साहित्य और फिल्में समाज का आईना हैं। ये वही दिखाती हैं जो वर्तमान समाज से प्रतिबिंबित हो रहा हो। इसलिये शायद अब किसी फिल्मों में बैलों से खेती होती नहीं दिखती, बिरले ही कहीं साहित्य में प्रेमचंद की ‘पंच परमेश्वर’, ‘ईदगाह’ या ‘दो बैलों की कथा’ सी जीवंतता नजर आती है।
इसलिए गांव अगर गांव ही रहें तो बेहतर है। कहीं ऐसा न हो कि गांव को अधिक आधुनिक बनाने की कोशिश में हम गांव का अस्तित्व ही मिटा दें। गांव हैं तभी खेती है, गांव हैं तभी यह देश कृषिप्रधान है। गांवों का विकास तभी हो सकता है जब हम एक गांव की मूलभूत बातों को संरक्षित रखते हुए ही उसका विकास करें।

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