Atal Bihari Vajpayee: वाजपेयी के सफर का गवाह अवध

रुमी दरवाजे के उस पार जो पुराना अवध बसता है, वहां से लेकर नए शहर लखनऊ तक अटल जी के चाहने वाले मौजूद हैं। कोई मिठाई वाला है तो कोई चाय या खाने का होटल चलाने वाला। कभी न कभी अटल जी से इस शहर के सैकड़ों दुकानदारों का साबका पड़ा। वे जिससे भी मिले, उसे खुद में समाहित करते गए। बल्कि यों कहें तो लोग खुद-ब-खुद उनकी तरफ खिंचते चले गए। पहले चाहने वालों की तादाद इकाई और दहाई तक थी। यह कब सैकड़ा, हजार का आंकड़ा पार कर करोड़ों तक पहुंच गई, पता ही नहीं चला। जिस शहर में पांव जमाने की हसरत लेकर एक नौजवान ग्वालियर से आया था, उसे शहरवासियों ने अपना सांसद चुन लिया।

अटल जी के साथ बिना लखनऊ का जिक्र किए बात पूरी नहीं होती। चौक की एक तंग गली में राम आसरे हलवाई की दुकान से अटल जी का बहुत पुराना वास्ता रहा। राम आसरे के मलाई पान के वे मुरीद थे। लखनऊ से उनका रिश्ता करीब सत्तर बरस पुराना था। जनसंघ की स्थापना के पूर्व उन्होंने इसी शहर में तीन समाचार पत्रों-राष्टÑधर्म, स्वदेश और मदरलैंड का संपादन किया। अक्सर पैदल और कभी-कभार रिक्शे से उन्होंने नवाबों की इस धरती को नापा। वाजपेयी के बेहद करीबी और बतौर सांसद उनके प्रतिनिधि रहे लालजी टंडन पुरानी बातों का जिक्र छिड़ते ही खो से जाते हैं।

वे कहते हैं: बात 1960 की है। उस वक्तचौक-चौराहे पर लोग तख्त रखकर चाट बेचा करते थे। मैं भी जवान था और अटल जी भी। हम दोनों जब उधर से गुजरते थे और जैसे ही अटल जी की निगाहें उस चाट के तख्त पर जाती थीं, वे हमारी तरफ देखने लगते थे। उसके बाद हम लोग इतमीनान से गोलगप्पे खाते थे और बढ़ चलते थे शिव आधार की ठंडई की दुकान की तरफ। क्या ठंडई बनाता था शिव आधार। भाई वाह, वहां छक कर ठंडई पीने के बाद हम दोनों की पदयात्रा ठहरती थी राम आसरे की मिठाई की दुकान पर। अटल जी को देखते ही राम आसरे पीतल की प्लेट या ढाक के पत्ते पर मलाई पान निकालते थे और उन्हें दे देते थे। मलाई पान खाते ही अटल जी इस मिठाई की शान में कसीदे पढ़ने शुरू कर देते थे।

1991 से 2009 तक लखनऊ के सांसद रहे वाजपेयी के बारे में चौक के पुराने लोग बताते हैं, कभी उन्हें न नाराज होते देखा, न ही कभी पद उन पर हावी होता दिखाई दिया। चाहे वह संघर्ष के समय में सड़क पर र्इंट की तकिया लगाकर सोना हो या प्रधानमंत्री आवास का सुख। अटल सरीखा कोई नहीं। वे अकेले नेता थे जिन्हें लखनऊ में हिंदू और मुसलमान समान भाव से लेते थे और चाहते थे। चाहे वह अकबरी गेट का इलाका हो, सादतगंज की तंग गलियां हों या चौपटिया। मुसलमानों के इन मोहल्लों में मातम है। हर आंख नम है और बस एक ही सवाल पूछती है- क्या फिर ऐसा अटल अवध के नसीब में कभी आएगा।

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