हिंदी का बाजार
तीन सौ साठ डिग्री का पूरा एक चक्कर लगाकर घड़ी की सुइयां पूरा करती हैं एक दिन। दिनों के योग से बनता है साल और हर साल हम तीन सौ साठ डिग्री का पूरा एक चक्कर लगाकर सितंबर में एक जाने-पहचाने सवाल से जूझने लगते हैं। यह सवाल होता हिंदी को लेकर। आज बाजार ने भाषाओं को लेकर एक ऐसी मानसिकता का मकड़जाल बुना है कि हम खुद-ब-खुद उसमें फंसते चले जा रहे हैं, जिसके कारण भारत में ही लोगों की अपनी भाषा हिंदी के प्रति कोई खास रुचि नहीं रही है। ज्यादातर भारतीय हिंदी बोलना जानते हैं। इसके बावजूद कम ही लोग होंगे जो अपने बच्चों का भविष्य बनाने के लिए हिंदी अपनाने का सुझाव देते हों।
हिंदी पढ़ रहे छात्रों से जब हिंदी के भविष्य पर सवाल पूछा जाता है तो वे उत्साह के साथ बताते हैं कि हिंदी केवल रोजगार पाने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह वह दरवाजा है जो हमें हमारे भीतर के यथार्थ से रूबरू कराता है। हिंदी भाषा और इसके साहित्य में वह गुण है जो एक सच्चे और स्वस्थ समाज का निर्माण करता है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंदी के एक प्रोफेसर हैं, वे हिंदी के सामने अंग्रेजी को एक बड़ी चुनौती नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि जिन चीजों के माध्यम से हमें यह बताया जा रहा है कि हिंदी का भविष्य खतरे में है वह मानने योग्य नहीं है। दरअसल, हम लोग जितना सुनते हैं, उसे ही पूरा सच मान लेते हैं। यही बाजार है जो हमारे सुनने, सोचने-समझने को सीमित और नियंत्रित करता है। उनका मानना है कि भाषा जो होती है वह संस्कृति की वाहक होती है। हमें अगर भारत को समझना है तो पहले यहां की बोलियों को, भाषाओं को समझने की जरूरत है। भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम न होकर उसके आगे की चीज है। दरअसल, भाषा में संस्कृतियां धड़कती हैं। इसलिए किसी भी भाषा के अस्तित्व पर सवाल उठाने से पहले हमें काफी सोचने और विचारने की जरूरत है।
आज आप भारत में कहीं भी जाइए, लोग आपको हिंदी में बात करते मिल जाएंगे। आज दक्षिण भारत तक हिंदी का विस्तार हुआ है। बीते साल एक अखबार में हिंदी दिवस पर हिंदी के चर्चित लेखक का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने हिंदी के बढ़ते बाजार की ओर इशारा किया था। उन्होंने लेख में यह दावा भी किया था कि चीन जैसा बड़ा देश अपने यहां ऐसे छात्र तैयार कर रहा है, जिनके पास हिंदी बाजार की अच्छी समझ हो। इसके लिए चीन के छात्र हर साल देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेकर हिंदी पढ़ रहे हैं। तो सवाल उठता है कि ऐसे क्या कारण हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा को देश के लोगों के बीच निम्नतर बना दिया है। जब दूसरे देशों के लोगों को हमारी हिंदी एक उज्ज्वल विकल्प के रूप में नजर आ सकती है तो हमारे यहां अब तक जनता में हिंदी को लेकर कोई सकारात्मक सोच क्यों नहीं बन पाई है।
हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर भारतीयों की घटती रुचि हिंदी के साहित्यकारों के साथ अन्याय है। कई बार हिंदी को लेकर बढ़चढ़ कर दावे किए जाते हैं। हकीकत यह है कि आज हिंदी पढ़ने वाला छात्र रोजगार के लिए भटकता रहता है। कई हिंदी प्रेमियों ने अपना जीवन गुरबत में बिताया है। ऐसा इसलिए हुआ कि पहले भी हिंदी पढ़ने वालों के लिए रोजगार मिलना कठिन था और अब भी कमोबेश यही स्थिति है। अनुवादक या हिंदी शिक्षक जैसी जगहें ही हिंदी पढ़ने वाले लोगों के लिए रह जाती हैं।
जहां तक हिंदी शिक्षकों की बात है तो सरकारें खुद उन्हें नजरअंदाज कर रही हंै। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से भारत में जितने स्कूलों की आवश्यकता है, उसके आधे की भी सरकार व्यवस्था नहीं कर पाई है। कायदे से अगर स्कूल बनाए जाएं तो भी कुछ लोगों को रोजगार मिल सकता है। कई बार ऐसा लगता है कि सरकारें हिंदी पर जोर तो देती है लेकिन वह वास्तविकता कम दिखावा ज्यादा होता है। सोचने वाली बात यह है कि अगर विदेशों में हिंदी का प्रसार हो रहा है और बाजार में भी हिंदी की मांग बढ़ी है तो आखिर क्या वजह है कि हिंदी रोजगार नहीं पैदा कर पा रही है। यह तो हम सभी जानते हैं कि जो भाषा रोजगार नहीं दे पाती, वह धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दी जाती है। जरूरी है कि हिंदी भाषा के साथ सौतेला व्यवहार खत्म हो और उसे अंग्रेजी के बरक्स दोयम न आंका जाए।
इसके लिए जरूरी है कि जहां-जहां अंग्रेजी का वर्चस्व है, जैसे न्यायालयों में, मेडिकल कॉलेजों, इंजीनियरिंग में तथा प्रशासन के बड़े हिस्से में, वहां हिंदी में भी कामकाज शुरू किया जाए। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में भी हिंदी का चलन बढ़ना चाहिए। जब तक न्यायक्षेत्र में हिंदी नहीं अपनाई जाएगी, यह भाषा अधूरी ही बनी रहेगी।