सुरक्षित निवेश के सिमटते दायर

मौद्रिक समीक्षा में केंद्रीय बैंक ने रेपो दर को कम करके पिछले दिनों छह प्रतिशत कर दिया। इसके तुरंत बाद भारतीय स्टेट बैंक ने बचत खाते में दिए जा रहे ब्याज दर को चार से घटाकर 3.5 प्रतिशत कर दिया। दूसरे निजी और सरकारी बैंकों ने भी बचत खाते पर दिए जा रहे ब्याज दर में कटौती की। निजी क्षेत्र के एचडीएफसी और आईसीआईसीआई जैसे दिग्गज बैंकों का नाम भी इसमें शामिल है। बैंकों द्वारा ऐसा करना लाजिमी था, क्योंकि रेपो दर में कटौती करने से बैंकों के पास सस्ती

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हिंसा के परिसर

यह समझ पाना मुश्किल है कि बातचीत के जरिए विद्यार्थियों की समस्याएं सुलझाने के बजाय विश्वविद्यालय प्रशासन केवल बल प्रयोग पर क्यों यकीन करने लगा है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय और चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में पुलिस के जरिए विद्यार्थियों को ‘अनुशासित’ करने का प्रयास किया गया। उसके चलते प्रशासन के तौर-तरीकों को लेकर ढेरों सवाल उठे। पर लगता है, उन घटनाओं से दूसरे विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने कोई सबक नहीं लिया। इसी का नतीजा है कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में सुरक्षा की मांग को लेकर शांतिपूर्ण तरीके से

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विकास बौरा गया है

बुलेट चली। बुलेट चली। बुलेट उनकी। जैकेट हमारी। एक जैकेट के बदले एक बुलेट। सौदा बुरा नहीं। बधाई। मेहमाननवाजी हो तो ऐसी कि मेहमान-मेजबान हर वक्त मुस्कराते दिखें और बटन दबे तो बुलेट चलती दिखे। चैनलों ने पूरे दिन बुलेट चलाई। लेकिन शाम तक बुलेट बहस में फंस गई। वही मरा-मरा सा समाजवाद कहता कि ट्रेन की पटरी ठीक नहीं की जाती और बुलेट चलाएंगे?एक चैनल पर पत्रकार ज्योति मल्होत्रा ने बीच बहस में यह चुटकी ली कि अगर कोई दिल्ली की जगह अमदाबाद को राजधानी बनाना चाहता है, तो

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तनाव के माहौल में विकास की बातें

राहुल गांधी ने अपने अमेरिकी दौरे पर जहां भारत की बिगड़ती आर्थिक स्थिति पर कुछ सच्ची बातें कहीं, वहीं सहनशीलता और अमन-शांति को लेकर झूठ भी इतना बड़ा बोला कि उसका विश्लेषण जरूरी हो गया है। मेरे जैसे वरिष्ठ राजनीतिक पंडितों को मालूम है कि राजनेताओं को कभी झूठ बोलना ही पड़ता है, लेकिन इन झूठों का एक दायरा होता है और उस दायरे को पिछले हफ्ते राहुलजी ने एक बहुत बड़ा झूठ बोल कर तोड़ डाला। राहुलजी ने किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय के भारतीय छात्रों से बातें करते हुए कहा

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छपाई वाले परिधान में नई धज

फैशन में लोगों की पसंद के अनुसार रुझान बदलते रहते हैं। मौसम के मुताबिक भी पहनावे में रंग और बनावट बदलते रहते हैं। इन दिनों पहनावे में प्रिंट यानी छपाई वाले कपड़ों का चलन है। इसके साथ-साथ अब बैग, जूते-चप्पल और परिधान के साथ इस्तेमाल होने वाली दूसरी सामग्री भी छापेदार उपयोग में लाई जाने लगी है। छापे के नए चलन के बारे में बता रही हैं अनुजा भट्ट। मौसम के हिसाब से इन दिनों फैशन में सबसे ज्यादा चलन प्रिंट का है। प्रिंट अपने रंगों और डिजाइन में सभी

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महान क्रांतिकारी महिला – मैडम भीकाजी कामा

काजी रुस्तम कामा को मैडम कामा के नाम से भी जाना जाता है। वे भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक थीं। उन्होंने दुनिया के तमाम देशों में जाकर भारत को आजाद कराने के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया था।  ’मैडम कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट शहर में 22 अगस्त, 1907 में सातवीं अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस के दौरान भारतीय तिरंगा फहराया था। उन्होंने इस तिरंगे में भारत के विभिन्न समुदायों को दर्शाया था। उनका तिरंगा आज के तिरंगे जैसा नहीं था। भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर, 1861 को मुंबई में

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असुरक्षित बचपन

इधर स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर सारे देश में किसी ने किसी ढंग से चर्चा होती रही है। कुछ महीने पहले निजी स्कूलों के पालकों ने कई राज्यों में इन स्कूलों में लगातार बढ़ती फीस को लेकर प्रदर्शन किए। यह आक्रोश बढ़ता ही जा रहा है। राज्य सरकारों ने फीस पर नियंत्रण करने के वादे भी किए हैं। कई दर्दनाक दुर्घटनाओं में मासूम नौनिहालों का जीवन जाता रहा। दुष्कर्म की घृणित वारदातें भी सामने आर्इं। इन सबके बाद भी स्कूलों ने पालकों के आक्रोश और अपेक्षाओं को समझने

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राम एक लीलाएं अनेक

हमारे यहां दशहरे की परंपरा सदियों पुरानी है। देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। ज्यादातर जगहों पर रामलीलाएं आयोजित होती हैं। हर रामलीला का अपना रंग है, अपनी रीत और ढंग है। उनमें शास्त्रीय से लेकर लोक शैली की अद्भुत छटा है। जहां रामलीलाओं का मंचन नहीं होता, वहां दशहरा मनाने का अपना-अपना ढंग है। उनमें कुल्लू और मैसूर के दशहरे की शाही परंपरा है, तो बनारस के रामनगर और अवध के दूसरे हिस्सों में मंचित होने वाली रामलीलाओं का अपना इतिहास। रामलीलाओं के

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जन की बात- राहुल राग

अमेरिका की धरती पर राहुल की वंशवाद पर की गई टिप्पणी पर भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेता लगातार बयानबाजी कर रहे हैं तो राहुल के बयानों पर बात करने की जरूरत समझी जा सकती है। राजनीति में सपने दिखाने के साथ सच का सामना की भी अहमियत होती है। अहंकार और रोजगार पर राहुल जिस कांग्रेसी नाकामी की स्वीकारोक्ति की भाषा बोल रहे हैं वह उन्हें एक नए अवतार में ला रही है। अमेरिकी शैक्षणिक संस्थान में वे अच्छे वक्ता के साथ अच्छे श्रोता की भी जरूरत बताते

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याद हमारी आएगीः खोटे का खरापन

अमर ज्योति’ की सौदामिनी, ‘मुगले आजम’ की जोधाबाई, ‘बॉबी’ की मिसेज ब्रिगेंजा या ‘बिदाई’ की पार्वती को भला कौन भूल सकता है। महज 26 साल की थीं वे, जब उनके पति का निधन हो गया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि पति के निधन के बाद अगर उनकी किसी ने मदद की तो वह थी उनकी पढ़ाई-लिखाई। दुर्गा का परंपराभंजक तेवर उस दौर में कलाकार मासिक तनख्वाह पर काम करते थे। प्रभात, न्यू थियेटर्स, प्रकाश पिक्चर्स, ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी जैसे कई स्टूडियो फिल्में बनाते थे। कोई कलाकार

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…जब ग्रेट वॉल ऑफ इंडिया बनवाने के लिए 50 किलो घी और 100 किलो रुई से जलाए गए थे चिराग

ग्रेट वॉल ऑफ चाइना के बारे में दुनिया जानती है। लेकिन आज बात ग्रेट वॉल ऑफ इंडिया की करेंगे। राजस्थान के राजसमंद जिले में कुंभलगढ़ नाम की जगह है। यह मेवाड़ के राजा रहे महाराणा प्रताप का जन्मस्थान है। यहीं पर कुंभलगढ़ का किला है, जिसकी परिधि में दीवारें है। यही ग्रेट वॉल ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर है। ग्रेट वॉल ऑफ चाइन के बाद दुनिया में यह दूसरी सबसे बड़ी दीवार है। साल 1443 के आसपास की बात है। कुंभलगढ़ के महाराज राणा कुंभा तब किले की सुरक्षा

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घृणाभाषा बनाम रचनात्मक भाषा

एक हैं ‘एंटीफा’। दूसरे हैं ‘प्रोफा’ या ‘नियोनाजी’! ‘एंटीफा’ यानी ‘एंटी फासिस्ट’ या ‘फासिस्ट विरोधी समूह’ और ‘प्रोफा’ यानी ‘प्रोफासिस्ट’ या ‘नियोनाजी समूह’! ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिका में ‘प्रोफाओं’ का हौसला बढ़ा है। वे अमेरिका को एक ‘बहुलतावादी राष्ट्र’ की तरह नहीं देखते बल्कि उसे ‘ठीक कर’ उस पर ‘गोरी जाति’ का एकछत्र आधिपत्य चाहते हैं। वे गोरों को श्रेष्ठ और सर्वोपरि मानते हैं। जिस तरह कभी हिटलर ने जर्मनों की ‘आर्यंस’ की श्रेष्ठता का दावा किया था और नस्ली श्रेष्ठता का भाव भरकर उनको विश्व

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अमन के रास्ते

हर तरफ सवाल हैं, लेकिन जवाब कुछ सूझ नहीं रहा। जिन्हें जवाब देने की जिम्मेदारियां मिली हैं, उनकी खामोशी समझ में नहीं आती। ये हकीकत है आज के दौर के हमारे भारत की, जहां देश का आम नागरिक हर तरह की राजनीतिक उठापटक से दूर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी चलाने और दो जून की रोटी जुटाने में सब कुछ फरामोश किए बैठा है। दूसरी ओर, देश के नौजवानों का एक बड़ा तबका सोशल मीडिया के सहारे साजिशों के चंगुल में फंस कर नफरतों को बढ़ावा देने में जोर-शोर से लगा

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जातिगत संघर्ष: अतुल्य भारत पर एक दाग

प्राचीन वैदिक समाज को श्रम विभाजन तथा सामाजिक जिम्मेदारियों के तहत चार वर्णों में विभाजित किया गया था। कालांतर में इनसे लाखों जातियां बन गईं। प्राचीन वर्ण व्यवस्था का सही या गलत होना हमेशा से विवादित रहा है, परंतु इसमे कोई शक नही है कि पिछले कुछ सौ वर्षों से जातिगत व्यवस्था के नकारात्मक परिणामों को इस समाज ने देखा और महसूस किया और इस प्रकार जातिगत व्यवस्था के खिलाफ लोगों के मन मे दृढ़ता बढ़ती गई। आज़ादी के बाद संविधान निर्माण के समय जातिगत व्यवस्था को मिटाने के प्रयास

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एक किंवदंती का जाना

मार्शल अर्जन सिंह का नाम ऐसे लोगों में शामिल हो चुका है, जो जीते जी किंवदंती बन जाते हैं। वे उस त्रयी में गिने जाते हैं, जिनमें जनरल करियप्पा और फील्ड मार्शल मानेकशॉ का नाम लिया जाता है। अट्ठानबे साल की उम्र में रविवार को उन्होंने अंतिम सांस ले ली। उन्नीस सौ पैंसठ के भारत-पाक युद्ध के महानायकों में शुमार किए जाने वाले मार्शल अर्जन सिंह का सोमवार को संपूर्ण राजकीय सम्मान के साथ दिल्ली में अंतिम संस्कार किया गया। उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी दी गई, जो कि किसी

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