बेबाक बोलः गढबड़ गाथा- नोटबंदी की नाकामी

ज्यां द्रेज के शब्दों में कहें तो आपने तेज चलती गाड़ी के टायर में गोली मार दी या फिर झरने के नीचे पोछा लगाना शुरू कर दिया। यानी नकद नारायण पर निर्भर देश की 86 फीसद मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया। इसके पहले 2013 में रिजर्व बैंक ने 2005 के पहले छपे नोटों को वापस मंगाया। उस समय यह धनवापसी बिना किसी जान-माल के नुकसान के संपन्न हो गई थी और कोई हंगामा भी नहीं बरपा था। अब जबकि 99 फीसद मुद्रा उर्जित पटेल की अगुआई वाले रिजर्व बैंक में वापस आ गई है तो फिर कहां है कालाधन? आपने तो कहा था कि लोग नदी-नालों में काला धन बहा रहे हैं। तो क्या वह वहां से धुलकर सफेद होकर आरबीआइ के खजाने में पहुंच गया। और अब जो आप बढ़ते डिजिटल लेनदेन और आयकरदाताओं की बात कर रहे हैं तो उसके लिए जीएसटी से बेहतर क्या था भला। इस बार इसी नाकाम नोटबंदी की गड़बड़ गाथा।

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

बैंकों और एटीएम के आगे लंबी कतारों में थके और निराशा से झुके सिरों को देख कर सचमुच सत्ता को धोखा हुआ होगा कि हमारे इस मनमाने फैसले के सामने जनता सजदा है। जन्मदिन के कारण सोशल मीडिया पर दुष्यंत कुमार छाए हुए हैं तो सोचा उनकी पंक्तियों से ही उन उम्मीदों को श्रद्धांजलि दी जाए जो नोटबंदी के वक्त देश की जनता को दिखाई गई थीं। अस्पताल में बच्चों और पटरियों पर मरते लोगों की संख्या गिनाता अगस्त उस उम्मीद को मार कर ही विदा हुआ कि नोटबंदी के अच्छे नतीजे निकलेंगे।

दिल्ली और बिहार हारने के बाद उत्तर प्रदेश में घुसने से पहले जब नोटबंदी लाई गई तभी अहसास हो गया था कि यह जमीनी मुद्दों को मारने का ब्रह्मास्त्र है। बिना किसी सूखे, महामारी या बाहरी हमले के जनता को कतार में खड़ा क्यों किया? जी, इसके पहले की भी सरकार ने ऐसा किया था, लेकिन बहुत थोड़ी मात्रा में मुद्रा को चलन से बाहर किया था। टेलीविजन के पर्दे पर आप महानायक की तरह आते हैं और इसे कालेधन के खिलाफ महायज्ञ बताते हैं। लेकिन दो-तीन दिन में ही हालात बिगड़ने के बाद आपके अर्थशास्त्री ने कहा कि नहीं, यह तो डिजिटल इंडिया के लिए है। आपके गृह मंत्री और सरकारी पक्ष की तरफ से तर्क आने लगे कि पाकिस्तान बर्बाद हो गया, कश्मीर में पत्थर बरसने बंद हो गए, सारे नक्सली ढेर हो गए।

आपके वित्त गुरु तो अमृतसर में जनता से नकारे जा चुके थे। लेकिन आपने उनकी सम्मान-वापसी कराते हुए उन्हें देश का सबसे अहम महकमा दे दिया। राज्यसभा के पिछले दरवाजे से आने के बाद उन्होंने देश की जनता के खातों पर पहरा लगा दिया। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सुबह से लेकर रात तक लोग कतारों में खड़े थे। आपने तो पूरा प्रबंधन करवा ही दिया था कि अखबारों से लेकर चैनलों तक पर वह कतार न दिखे। लेकिन बुरा हो सोशल मीडिया का जिसकी तस्वीरों को झुठलाना संभव नहीं हो पा रहा था और जमीनी हालात को झुठलाना आपके लिए नामुमकिन हो रहा था। और तब, आप खुद आकर 50 दिन का समय मांगते हैं और कहते हैं कि अगर इतने दिनों में सब ठीक नहीं हुआ तो जनता जिस चौराहे पर सजा देना चाहे, मंजूर। पूरे देश को भ्रष्टाचारी साबित कर आपने खुद को फकीर बताया कि जब चाहूं झोला उठा कर चल दूं।

और, जब कतार में मरती, हाहाकार करती जनता की तस्वीरें सामने आने लगीं तो आप जनता के आंसू पोंछने के बजाए भरी सभा में रो दिए कि आपको बोलने नहीं दिया जा रहा। ओह, जनाब कैसा दारुण दृश्य था वह। जो महानायक ‘मौनमोहन’ की खिल्ली उड़ा कर डंके की चोट पर प्रचंड बहुमत से आए थे, वे कह रहे थे कि उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा। जनसभा में उनके आंसू। आप देखिए भारतीय जनता का धैर्य। वह कतार में खड़ी अपनी दुखती टांगों का दुख भूल कर आपके आंसू पोंछने में लग गई।

आपको लोगों से कहते सुना कि जो नोट आपने जमा किया था वह नहीं मिलेगा, रद्दी हो चुका है। आप लोगों की मेहनत की कमाई, सपनों और उम्मीदों को मिट्टी बता रहे थे। अपनी जरूरतों को काटकर बचाए गए ‘कालेधन’ के कारण घरेलू महिलाएं अपने घर में भ्रष्टाचारी साबित कर दी गई थीं। नोटबंदी का वह समय किसानी और शादी-ब्याह का मौसम था। बिग बाजार सरकारी नोट बदल रहा था लेकिन सहकारी बैंकों को इससे बाहर रखा गया था। जिन घरों से बेटी की डोली निकलनी थी, उन घरों से मां-बाप की अर्थी निकल रही थी। हिंदू सभ्यता-संस्कृति में जीते मां-बाप यह सदमा नहीं झेल पा रहे थे कि उनका रुपया कैद कर लिया गया है और अब बजती शहनाइयों को रोकना पड़ेगा। आप तो भारत की सभ्यता-संस्कृति की सबसे ज्यादा दुहाई देते थे। लेकिन क्या आपको इस बात का अंदाजा नहीं था कि आपके इस फैसले से शादी समारोह के लिए जाते लोग श्मशान पहुंच जाएंगे। छोटे कामगार बेरोजगार हो जाएंगे और उद्योगों पर कितना बुरा असर पड़ेगा।

तो जिन मनमोहन सिंह को आप बरसाती पहना कर स्नानघर में खड़ा कर चुके थे उन्होंने आपकी इस नोटबंदी की कवायद को संगठित लूट और कानूनी डाका कहा। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यह ऐतिहासिक भूल साबित होगी। उनकी चेतावनी सही साबित हुई और सकल घरेलू उत्पाद में दो फीसद की गिरावट आई। अब नोटबंदी के बाद 99 फीसद पांच सौ और हजार के नोट वापस आ गए हैं, 15 लाख 28 हजार करोड़ रुपया वापस आ गया है। बाकी के नेपाल-भूटान से मंगवा लें। और लोगों की पूंजी को रद्दी बना कर नए तरीके से छापने में भारतीय रिजर्व बैंक के 21 हजार करोड़ रुपए लग गए। इतनी महंगी रद्दी कहां बिकती है साहब! बड़ा घाटे का सौदा रहा। कुछ ज्यादा नहीं, रिजर्व बैंक को तीस हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ। 15 लाख से ज्यादा नौकरियां गई हैं और उद्योगों को अरबों का घाटा हुआ। छोटे और मंझोले क्षेत्रों की तो बात छोड़िए बड़े कारपोरेट समूहों में टीम नायकों तक की तनख्वाह में तीस फीसद तक की कटौती हुई है। कई निजी संस्थानों में निचले स्तर के कर्मचारियों को कोई सालाना वेतन वृद्धि नहीं मिली है।

और, इन सबके बीच पूर्व वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने उन अर्थशास्त्रियों को नोबेल पुरस्कार देने की भयावह सलाह दे डाली है जिनके कारण आरबीआइ को 16 हजार करोड़ का फायदा हुआ लेकिन नए नोटों की छपाई में 21 हजार करोड़ रुपए खर्च हो गए। मुझे डर है कि चिदंबरम के इस व्यंग्य को सत्ता पक्ष गंभीरता से न ले ले। वैसे, चिदंबरम की सलाह के पहले ही लोगों के खातों के पहरेदार बने नेता को इनामस्वरूप सरहद की पहरेदारी सौंप ही दी गई थी। जब सरहद पर सारे मामले नोटबंदी से ही सुलझ रहे थे तो मनोहर पर्रीकर की प्रतिभा का दिल्ली में गलत इस्तेमाल क्यों किया जाता भला। इसलिए उन्हें गोवा में भाजपा सरकार की सुरक्षा में लगा दिया गया।

अब आप कहेंगे कि रिजर्व बैंक के नुकसान की बात करते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में फायदा नहीं देखते। हमने जनता को कतार में रहना, चुप रहना सिखा दिया है। विपक्ष की बोलती बंद कर दी है। हमारे मंत्री कहते हैं कि अगस्त में बच्चे मरते ही हैं और उनके राजनीतिक जीवन को कुछ नहीं होता। हमने एक योगी को मुख्यमंत्री बना दिया और जब उन्होंने कहा कि मुझे तो लगता है कि लोग बच्चा पैदा करने के एक-दो साल बाद सरकार के भरोसे छोड़ देंगे तो विपक्ष का स्वाभिमान जागा क्या? योगी के इस जुमले के बाद हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट हुई। जिस सूबे में बच्चे मर रहे हैं वहां बच्चों को लेकर इस असंवेदनशील बयान पर बजी तालियां बता रही हैं कि हमारा देश मर रहा है। वह अपने अधिकारों की मौत से लेकर बच्चों की मौत पर ठस बैठा है। यही है नोटबंदी का हासिल जो आप चाहते थे। अब रामजादों से लेकर हराम… बोलने वालीं साध्वी को क्या पता था कि राम के नाम पर वोट देने वाली उत्तर प्रदेश की जनता के सभी बच्चों के साथ एक जैसा ही व्यवहार होगा।

नोटबंदी का मकसद जब अर्थशास्त्र था ही नहीं तो उसके हासिल को हम अर्थव्यवस्था में क्यों खोज रहे? इसका हासिल है अपने अधिकारों का समर्पण करती जनता और रीढ़ टूटा विपक्ष। अब आंकड़ों से साफ है कि सरकारी दावे के उलट भ्रष्टाचारियों ने कोई नोट नदी, नालों और समुद्र में नहीं बहाए और न जलाए। जो चीज बही, जो चीज जली वह थी लोकतांत्रिक चेतना। नोटबंदी का हासिल डिजिटल इंडिया में खोज रहे हैं तो पहले उपद्रवियों के कारण कश्मीर में इंटरनेट सेवा बंद कर दी जाती थी तो अब पंचकूला में सरकार के नाकाम होने के साथ ही इंटरनेट पर लगाम लगा दी जाती है। कश्मीर के पत्थर रामजस कॉलेज से लेकर पंचकूला तक पहुंच गए। नोटबंदी से हासिल अहंकार का ही असर है कि एक बलात्कारी बाबा के आगे लेटी हुकूमत 36 से ज्यादा लोगों की मौतों पर कहती है कि जो किया ठीक किया, इस्तीफा नहीं दूंगा।

तो श्रीमान, नोटबंदी तो हुई नाकाम, लेकिन सवाल तो अब भी मौजूद है कि कतार में खड़ी पूरे देश की जनता और उस कारण 104 से ज्यादा लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन? पता है कि आप के यहां न जवाब दिए जाते हैं, न इस्तीफे। लेकिन जरा बवाना से निकली बात याद रखिएगा। आम आदमी पार्टी तो अस्पताल और स्कूल पर लौट आई। अब देखते हैं कि आप कब तक सूरत बदलने के बजाए सिर्फ हंगामा खड़ा करने वाले मसलों के साथ टिक पाएंगे। आपके हंगामे ने वित्तीय वर्ष की 2017-18 की पहली तिमाही में विकास दर तीन साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दी है। अब तो आप नोटबंदी पर अपना हठयोग छोड़ इसे भारतीय अर्थव्यवस्था की गड़बड़ गाथा मान लें।

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