आजीविका मूल्य की कसौटी

अपने परिवार की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए आजीविका मूल्य प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का मौलिक अधिकार है। मनुष्य को दिन भर काम के बदले मिलने वाला परिश्रम-मूल्य उसके परिवार का पोषण-मूल्य प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए, जिससे परिवार की आहार, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की आवश्यकताएं पूरी हो सकें। उद्योग जगत में वस्तु का उत्पादन मूल्य निर्धारित करते समय कर्मकारों की मजदूरी, लागत खर्च, प्रबंधन, व्यवस्थापन मूल्य के साथ मुनाफा जोड़ा जाता है, जिससे उद्योगपतिको एक उत्पादक के नाते आमदनी प्राप्त होती है।  किसान कुशल श्रमिक, प्रबंधक और उत्पादक है। कृषि-कार्यों के लिए उचित आमदनी प्राप्त करना किसान का मौलिक अधिकार है और इस अधिकार का संरक्षण करने के लिए नीति निर्धारण करना लोक कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है। लोककल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह किसी का शोषण न होने दे और मौलिक अधिकार का रक्षण करे। संविधान में मजदूरी निर्धारण में किसी प्रकार के भेदभाव की अनुमति नहीं है।

उद्योगपतियों को अमर्यादित लाभ कमाने की खुली छूट है। उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। उद्योगपतियों को प्रोत्साहन (इंसेंटिव) के नाम पर हर साल लाखों करोड़ रुपए की टैक्स माफी और सुविधाएं दी जाती हैं। फिर भी, बैंकों के एनपीए के लिए वही जिम्मेवार हैं। एनपीए का बोझ कम करने के नाम पर उनके कर्जों का ‘पुनर्गठन’ करके उन्हें फिर छूट दी जाती है।
लेकिन यह आश्चर्य है कि कृषिप्रधान देश में, आजादी के सत्तर साल बाद भी किसान को उसकी मेहनत का मूल्य देने की व्यवस्था नहीं बनाई गई। कुशल श्रमिक, प्रबंधक और उत्पादक के नाते वाजिब आमदनी सुनिश्चित करने की बात तो दूर, सबसे आवश्यक काम के लिए कठिन मेहनत करने के बावजूद उसे न्यूनतम मजदूरी तक प्राप्त नहीं होती। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में शरीर श्रम के लिए प्रतिदिन केवल 92 रुपए मजदूरी मिलती है। खुले बाजार में वह भी मिलने की कोई गारंटी नहीं है। देश में किसी भी काम के लिए मिलने वाली मजदूरी में यह सबसे कम है। यह मजदूरी, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का उल्लंघन है। इस मजदूरी से परिवार की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति संभव नहीं है।

भारत में नागरिकों की मजदूरी में प्रचंड भेद किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को समान आधार पर मेहनत का मूल्य मिलना चाहिए। श्रम-मूल्य निर्धारण में शारीरिक-बौद्धिक, संगठित-असंगठित, महिला-पुरुष का भेद करना अन्यायकारी है। सरकार को समान कार्य के लिए समान मजदूरी देने या दिलाने की संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। अभी तक परिवार के भरण-पोषण के लिहाज से न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित नहीं की गई है। यह अन्यायकारी व्यवस्था कुछ कुतर्कों पर खड़ी की गई है। सरकारी कर्मचारियों के लिए वेतन बढ़ाते समय कहा जाता है कि स्पर्धात्मक वेतन न देने से बुद्धिमान लोग सरकार में नहीं आएंगे। विदेशी या निजी कंपनियों में चले जाएंगे। उद्योग जगत की मुख्य प्रेरणा मुनाफे को मान कर मालिक को लाभ कमाने की खुली छूट दी गई है। इतना ही नहीं, उन्हें इंसेंटिव यानी प्रोत्साहन के नाम पर रियायतें देना विकास के लिए जरूरी बताया जाता है। कृषि उपज को छोड़ कर बाकी सभी वस्तुओं के दाम उत्पादक तय करते हैं। किसान उत्पादक तो है, पर वह अपने उत्पादन का दाम खुद तय नहीं कर पाता है, वह एक ऐसी व्यवस्था का शिकार है कि खरीदने वाला जो दाम देगा उसी में उसे मजबूरन बेचना पड़ता है। उसके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं रखा गया है।

किसान को फसल का वाजिब दाम देने की जब मांग उठती है तब अक्सर दो (कु)तर्क दिए जाते हैं। एक यह कि इससे देश में महंगाई बढेÞगी, और दूसरा, यह कि एक ग्राहक के रूप में किसान को ही महंगा खरीदना पडेÞगा। इस तरह के कुतर्कों का सहारा लेकर किसान के साथ हो रहे अन्याय को चलने दिया जाता है। पर दूसरी सेवाओं की कीमत तय करते समय उनके महंगे हो जाने का तर्क कभी नहीं दिया जाता। बुनियादी सवाल यह है कि अगर पैदावार का न्यायसंगत मूल्य नहीं दिया जाएगा, तो कोई खेती क्यों करना चाहेगा? कोई लिये हुए कर्ज कहां से चुकाएगा? खेती पुसाने लायक बने यह किसान के साथ-साथ बाकी सब लोगों के लिए भी जरूरी है; यह हमारी खाद्य सुरक्षा का भी सवाल है।किसान के लिए बनाई गई शोषणकारी व्यवस्था ने ही उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया है। पिछले ढाई दशक में तीन लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। यह सिलसिला अब भी जारी है। फिर भी हमारे हुक्मरानों के कान पर जूं नहीं रेंगती। अपने को किसान-पुत्र और धरती-पुत्र कहने वाले भी किसानों के प्रति संवेदनहीन नजर आते हैं। किसानों के कल्याण के नाम पर जो नीतियां बनाई जा रही हैं उनसे किसानों का कितना भला हो रहा है इसका एक उदाहरण प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना है। इस योजना से कंपनियां ही मालामाल हो रही हैं।

हरित क्रांति से कृषि उत्पादन तो बढ़ा लेकिन किसानों की हालत बिगड़ती गई। विशिष्ट फसलों का उत्पादन बढ़ने से फसलों की कीमत कम हुई। उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक खेती को बढ़ावा दिया गया। इससे बीज, खाद, कीटनाशक, यंत्रों के बढ़ते इस्तेमाल, सिंचाई, बिजली आदि के लिए किसान की बाजार पर निर्भरता बढ़ने से लागत खर्च बढ़ा। फिर, लागत और आय का अंतर इस तरह कम हुआ कि खेती घाटे का सौदा बनी और किसान कर्ज के जाल में फंसता गया।  स्वामीनाथन आयोग ने एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में उत्पादन की औसत लागत से पचास प्रतिशत अधिक मूल्य देने की सिफारिश की है। लेकिन जब उत्पादन मूल्य ही अन्यायपूर्ण ढंग से तय किया जाता हो, तब? एमएसपी की व्यवस्था उत्पादन मूल्य देने के लिए नहीं है। एमएसपी की संकल्पना ही मूलत: अन्यायपूर्ण है। एमएसपी फसल का उत्पादन मूल्य नहीं है। वह लागत मूल्य की न्यूनतम गारंटी कीमत है। वह किसान को केवल यह गारंटी देती है कि अगर उसकी फसल एमएसपी से कम दर पर बिकती है तो सरकार उसकी खरीद करेगी।

फसलों के लागत मूल्य निकालने की पद्धति भेदभावपूर्ण, अवैज्ञानिक व अन्यायपूर्ण है। इसमें लागत मूल्य, किसान के परिश्रम का मूल्य, काम के दिन तथा बाजार मूल्य व न्यूनतम मजदूरी दरों संबंधी कानून आदि का उल्लंघन करके फसलों का दाम वास्तविकता से कम, और भेदभावपूर्ण तरीके से निर्धारित किया जाता है। बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई, परिवहन आदि का लागत खर्च बहुत कम आंका जाता है। इसमें किसानों को फसलों की लाभकारी कीमत मिलना तो संभव ही नहीं, मेहनत का उचित मूल्य मिलने की भी व्यवस्था नहीं है। केंद्र सरकार हर साल तेईस फसलों की एमएसपी घोषित करती है। लेकिन केवल पांच फसलें धान, गेहूं, कपास, गन्ना और रबर सीमित मात्रा में खरीदती है। विशेष परिस्थिति में किसी राज्य में एकाध फसल और खरीदी जाती है। कुल कृषि उत्पादन का लगभग छह प्रतिशत हिस्सा सरकारें खरीद पाती हैं। यानी 94 प्रतिशत कृषि उत्पादन दलालों के भरोसे बिकता है। सैकड़ों फसलों की न तो एमएसपी घोषित होती है न ही उसकी खरीद की कोई योजना है। हमें देश में एक ऐसी नई व्यवस्था बनानी होगी जिसमेंसंगठित-असंगठित क्षेत्र का भेद किए बिना ‘एक देश एक श्रममूल्य’ का नियम लागू हो। किसान को कुशल श्रम के लिए श्रम-मूल्य सुनिश्चित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त, किसान को प्रबंधन और फसलों की सुरक्षा आदि के लिए श्रम-मूल्य तथा एक उत्पादक की आमदनी जोड़ कर निर्धारित किया गया फसल का उत्पादन मूल्य मिलना चाहिए। तब जाकर खेती घाटे का धंधा नहीं होगी और किसान मुसीबत में नहीं होंगे।

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