इस्लाम में मस्जिद के अनिवार्य नहीं होने की टिप्पणी पर सुनवाई पूरी

सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मालिकाना हक के विवाद में मुसलिम समूह के इस अनुरोध पर शुक्रवार को सुनवाई पूरी कर ली कि शीर्ष अदालत के 1994 के एक फैसले में की गई टिप्पणी पुनर्विचार के लिए वृहद पीठ को सौंपा जाए या नहीं। इस फैसले में कहा गया था कि मस्जिद इस्लाम में अनिवार्य नहीं है। अयोध्या प्रकरण में मूल वादकारी एम सिद्दीक, जिनका निधन हो गया और उनके वारिस उनका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, ने एम इस्माईल फारूकी मामले में 1994 के फैसले की कुछ टिप्पणियों पर सवाल उठाए थे। इसमें कहा गया था कि मस्जिद इस्लाम को मानने वालों द्वारा की जाने वाली इबादत का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एसए नजीर के तीन सदस्यीय विशेष खंडपीठ के समक्ष मुसलिम समूह ने दलील दी कि शीर्ष अदालत के फैसले में की गई इस तरह की ‘अतिरंजित’ टिप्पणी पर पांच जजों के संविधान पीठ द्वारा विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मामले पर इसका असर होगा।

पीठ ने कहा कि इस पर आदेश बाद में सुनाया जाएगा लेकिन इस बीच 24 जुलाई तक संबंधित पक्षकारों को लिखित दलीलें पेश करनी होंगी। सिद्दीक के कानूनी वारिस की ओर से वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कहा कि शीर्ष अदालत ने धार्मिक ग्रंथों पर विचार किए बिना और किसी जांच के बगैर ही यह टिप्पणी की है कि इस्लाम का पालन करने के लिए मस्जिद अनिवार्य नहीं है। सुनवाई शुरू होने पर धवन की पहले की गई टिप्पणियों पर एक वकील ने आपत्ति की। जिसे लेकर तीखी नोकझोंक हुई। धवन ने कहा था कि 1992 हिंदू तालिबान ने बाबरी मस्जिद नष्ट की थी। वकील का कहना था- उन्हें पूरे हिंदू समुदाय के बारे में इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। धवन ने कहा- बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करना आतंकी कृत्य था। मैं अपने शब्द वापस नहीं लूंगा। मैं अपने शब्दों पर कायम हूं।

पीठ ने कहा कि इस तरह के शब्द (हिंदू तालिबान) अनुचित हैं और अदालत की गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए। पीठ ने सुरक्षाकर्मियों से कहा कि धवन के साथ नोकझोंक करने वाले वकील को अदालत कक्ष से बाहर ले जाएं। धवन ने 13 जुलाई को कहा था कि अफगानिस्तान के बामियान में जिस तरह से तालिबान ने बुद्ध की प्रतिमा ढहाई थी, उसी तरह हिंदू तालिबान ने बाबरी मस्जिद गिरा दी। उत्तर प्रदेश सरकार ने इससे पहले शीर्ष अदालत से कहा था कि कुछ मुसलिम समूह 1994 के फैसले में की गई टिप्पणी पर पुनर्विचार का अनुरोध करके लंबे समय से लंबित अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद की सुनवाई में विलंब करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से अतिरिक्त महान्यायवादी तुषार मेहता ने कहा था कि इस विवाद को लगभग शताब्दी से अंतिम निर्णय का इंतजार है। उन्होंने यह भी कहा था कि 1994 की टिप्पणी न तो किसी प्रकरण में उठाई गईं और न ही हाईकोर्ट के फैसले के बाद 2010 में दायर अपीलों में उठाई गई हैं। इससे पहले हिंदू समूहों ने 1994 के फैसले की टिप्पणियों को मुसलिम समूह द्वारा अब उठाए जाने का विरोध किया था।

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