आर्थिक मोर्चे पर जीत की उम्मीदें

आप महाभारत के पात्रों की तरह भीष्म ‘पितामह’ हों या युधिष्ठिर अथवा मौर्य काल के चाणक्य- अपनी सेना या जनता को क्या यह संदेश दे सकते हैं कि ‘सब कुछ चौपट हो गया। देश डूब रहा है। हमारे-आपके सामने बस अंधियारा रास्ता है?’ इसी तरह पं. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी ने कठिनाइयों के दौर में भी क्या अपने साथियों, विरोधियों और जनता के बीच नई आशा जगाने का काम नहीं किया? अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रतिपक्ष में रहते हुए कांग्रेस सरकारों की नीतियों की कड़ी आलोचना की, लेकिन जनता से यह कभी नहीं कहा कि देश रसातल में चला गया है। फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी और जीएसटी जैसे कड़े आर्थिक निर्णयों को लागू करने से आई कुछ तात्कालिक समस्याओं के बीच निराशा से हट कर उज्ज्वल भविष्य की उम्मीदें जगाने में क्या गलती कर रहे हैं?

ऐसा तो संभव नहीं है कि सरकार और संगठन के विशाल तंत्र से उन्हें छोटे व्यापारियों की तकलीफों की सूचनाएं नहीं मिली होंगी। प्राचीन या आधुनिकतम चिकित्सा व्यवस्था होने पर भी आपरेशन के घाव का दर्द खत्म होने में थोड़ा समय लगता है। मीडिया में हम जैसे कितने ही पत्रकार क्या विभिन्न समाचार माध्यमों के जरिए वर्तमान कठिनाइयों को सामने नहीं ला रहे हैं? फिर भी समय के साथ रथ को घुमा देने में माहिर स्वयं को ‘भीष्म पितामह’ कहने वाले यशवंत सिन्हा ‘हाय-हाय’ करते हुए देश के ‘चीर-हरण’ की रक्षा के लिए बलिदान की बातें कर रहे हैं। इस समय यशवंत सिन्हा या अरुण शौरी की किसी आलोचना को पूर्वाग्रही या सत्ता प्रेरित कहा जा सकता है। लेकिन मुझे तो सिन्हाजी भी पूर्वाग्रही नहीं कह पाएंगे, क्योंकि 1996 के आसपास जब भारतीय जनता पार्टी ने यशवंत सिन्हा को प्रवेश दिया था, अपने अखबार के एक कॉलम में मैंने दो पंक्ति इस बात पर तीखे ढंग से लिखी थी। इस छोटे-से अंश पर सिन्हा जी ने उस बड़े संस्थान के शीर्ष प्रबंधन को फोन कर अप्रसन्नता के साथ अपना दर्द बताया था। आज की तरह तब भी मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं था। इसलिए मैंने उन्हें चाय पर निमंत्रित कर उनकी पूरी बातें सुनीं। फिर उन्हें असली कारण बताया कि 1990-91 में एक अन्य बड़े अखबार के पटना संपादक के नाते मुझे कुछ आंखों देखी जानकारियां और बाद में हवाला कांड में सीबीआइ के आरोपपत्रों के कारण ऐसी पंक्तियां लिखी गर्इं।

बहरहाल, बात आई-गई हो गई। जैसा वह स्वयं कहते हैं कि वैचारिक मतभेदों के बावजूद हमें बैर-भाव नहीं रखना चाहिए। वित्तमंत्री के नाते भी मैंने उनके इंटरव्यू किए हैं। तब भी समय-समय पर सरकार के कुछ निर्णयों की आलोचना की है। आखिरकार, विश्वनाथ प्रताप सिंह का दामन छोड़ कर चंद्रशेखर से सत्ता-सुख पाने के दौरान सरकारी खजाने के खस्ताहाल, विश्व बैंक के समक्ष संपूर्ण समर्पण, अमेरिकी फौजों के लिए भारत में र्इंधन उपलब्ध कराने के फैसलों में क्या उनकी भूमिका अहम नहीं रही? कई बातें तो उनकी अपनी पुस्तक में दर्ज हैं। वह तो यह भी दावा करते रहे हैं कि भारत में उदार आर्थिक क्रांति का दस्तावेज (संभवत: विश्व बैंक के मार्गदर्शन में) उन्होंने ही तैयार किया था, जिसे उनके उत्तराधिकारी अनुयायी मनमोहन सिंह ने लागू किया।

निश्चित रूप से 1991 के बाद भारत के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में व्यापक बदलाव हुआ। लेकिन लघु या गृह उद्योगों की कठिनाइयों का दौर तभी से शुरू भी हो गया था। राव राज के दौरान तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह से इंटरव्यू करते हुए मैंने विनम्रता से जानना चाहा था कि ‘नई आर्थिक नीतियों के कारण बड़ी विदेशी कंपनियां आने पर गांव-कस्बों में पापड़-बड़ी बनाने वाली महिलाओं के जीवन-यापन में क्या संकट नहीं आएगा?’ अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने दो टूक उत्तर दिया था- ‘उन्हें भी मल्टीनेशनल से प्रतियोगिता करनी होगी। प्रतियोगिता से ही तो आर्थिक प्रगति होगी।’ एक पत्रकार के नाते मैंने उनसे कोई बहस नहीं की। लेकिन गैर-राजनीतिक वित्तमंत्री और फिर प्रधानमंत्री रहते उनके या उनसे सहमत बाबू वर्ग के पापों का परिणाम आज गांव-कस्बे या शहर के सामान्य लोग नहीं भुगत रहे हैं? कृपया पता लगा लें- हमारे मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में ही नहीं, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आलू की चिप्स या अन्य खाद्य पदार्थों के महंगे पैकेट्स केचलते पापड़-बड़ी बनाने वालों को कहीं और मजदूरी ढ़ूंढ़नी पड़ रही है। ऐसी हालत में नए आर्थिक कदमों से सिन्हा-शौरी की ‘मनमोहन कंपनी’ का दुखड़ा कुछ बाबाओं की तरह पाखंड ही लगता है।

बहरहाल, कठिनाइयों के पहाड़ को लांघते हुए उम्मीदों पर भी ध्यान दिया जाए। नोटबंदी से तत्काल घातक प्रभाव नहीं हुआ, लेकिन बड़ी संख्या में छोटे उद्योग-धंधों का काम ठप रहने या कहीं-कहीं बंद हो जाने से अल्प वेतनभोगी लोगों और श्रमिकों के लिए बड़ी कठिनाइयां आर्इं। फिर जीएसटी भी कम तैयारियों और नॉर्थ ब्लॉक में कंप्यूटर पर हुए आकलन के कारण छोटे कारोबारियों की तात्कालिक मुसीबत बन गया। यह तथ्य वित्तमंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जान चुके हैं। इसीलिए नियमों में ढील या बदलाव के कदम भी निरंतर उठाए जा रहे हैं। पेट्रोल-डीजल के उत्पाद शुल्क में कमी का फैसला भी उसी दिशा में एक कदम माना जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि दो क्रांतिकारी बदलाव के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाया है। उनके फैसलों से तो प्रतिपक्ष को प्रसन्न होने का मौका मिल रहा है, क्योंकि उन्हें आगामी चुनावों में भाजपा के कमजोर होने के आसार दिख रहे हैं।

लेकिन तटस्थ भाव रखने वाले हम जैसे पत्रकार तत्काल यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं मानेंगे। आखिरकार मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार और संगठन में भी राजनीतिक चातुर्य वाले खिलाड़ी कम नहीं हैं। दूसरी तरफ भारतीय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रखने वाले विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किंग तक ने सार्वजनिक रूप से कह दिया कि ‘भारत में आर्थिक विकास दर में आई गिरावट अस्थायी है। जीएसटी लागू करने में तैयारियों की कमी से ऐसा हुआ है। बाद में इसका सकारात्मक असर भारत की अर्थव्यवस्था पर होगा।’
इसी तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला करते हुए जनसामान्य की उपभोक्ता वस्तुओं के शीर्षस्थ निर्माता और कॉरपोरेट जगत के दिग्गज आदि गोदरेज तथा कई अन्य उद्योगपतियों ने भी यह कहा कि ‘आर्थिक सुस्ती का यह दौर थोड़े समय के लिए है। इस वर्ष की दूसरी छमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी। आइटी क्षेत्र में भी पहले हुई गिरावट की स्थिति बदलेगी और आइटी सहित इन्फ्रास्ट्रक्चर में बड़े पैमाने पर पूंजी लगाने से बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध होगा।’ इस आशावादिता के साथ अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंबी-चौड़ी टीम और भाजपा की प्रादेशिक सरकारों को लघु-मध्यम उद्योगों को पुनर्जीवित करने के अभियान पर अधिक ध्यान देना होगा। सरकारें ऋण अनुदान की घोषणा कर देती हैं, लेकिन निचले स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा।

आर्थिक बोझ का एक कारण किसानों की कर्जमाफी माना जा रहा है। लेकिन किसानों को सही मायने में उसका लाभ मिलना चाहिए। सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं, लेकिन उसके वित्तीय लाभ के साथ अफसरों और बाबुओं की कार्यक्षमता भी तो ईमानदारी से बढ़नी चाहिए। महंगाई और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की आवाज हर सत्ताकाल में उठती रही और उठेगी। सपनों का भारत नेहरू का हो या मोदी का- जनता का आत्मविश्वास ही उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सशक्त बना सकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *