दिल्ली की हवा

दिल्ली के फीरोजशाह कोटला मैदान में भारत-श्रीलंका के बीच चल रहे क्रिकेट टेस्ट मैच में रविवार को इसलिए बार-बार बाधा आती रही कि श्रीलंका के खिलाड़ियों को धूल-धुंध और धुएं के वातावरण में खेलना मुश्किल हो रहा था। वे मुंह और नाक ढक कर खेलने उतरे, उसके बावजूद उनकी आंखों में जलन और सांस लेने में परेशानी कम नहीं हुई। हालांकि भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली ने पारी घोषित कर श्रीलंका को बैटिंग करने का मौका दे दिया, पर यह सवाल हवा में तैरता रहा कि आखिर क्यों दिल्ली में प्रदूषण पर काबू पाने में कामयाबी नहीं मिल पा रही। यह हर साल का सिलसिला बन गया है कि जब सर्दी का मौसम शुरू होता है, दिल्ली में धूल और धुएं के हानिकारक कणों की गहरी परत जमनी शुरू हो जाती है। पिछले कुछ सालों से तर्क दिया जाता है कि इस मौसम में हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसान धान की कटाई के बाद उसके अवशेष जलाते हैं, जिससे दिल्ली की हवा में प्रदूषण बढ़ जाता है। मगर अनेक अध्ययनों से साफ हो चुका है कि इसका यही एकमात्र कारण नहीं है।

पिछले साल अदालत के दखल से बाहरी प्रांतों से आने-जाने वाले ट्रकों का दिल्ली में प्रवेश वर्जित कर दिया गया। कूड़ा-कर्कट जलाने पर जुर्माने का प्रावधान किया गया। निर्माण कार्यों पर अंकुश लगाया गया। दिल्ली सरकार ने दो बार निजी वाहनों के लिए सम-विषम योजना का प्रयोग किया। इन सारे प्रयासों के कुछ बेहतर नतीजे जरूर मिले, पर संतोषजनक और स्थायी परिणाम नहीं आया। इसीलिए इस बार भी जब दिल्ली सरकार ने कारों पर सम-विषम योजना लागू करनी चाही तो राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने उस पर सवाल उठा दिया। इस साल सर्दी का मौसम शुरू होते ही दिल्ली की हवा में जो धूल और धुएं के कण जमने शुरू हुए, वे अभी तक छंट नहीं पाए हैं। इसलिए लंबे समय से फेफड़े के रोगियों के लिए यह मौसम तकलीफ भरा साबित हो रहा है। सामान्य लोगों को भी आंखों में जलन, सांस लेने में परेशानी, सिर दर्द, खांसी, जुकाम जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

प्रदूषण पर काबू न पाए जा सकने की जवाबदेही निस्संदेह सरकार की है, पर इसमें नागरिकों की सहभागिता भी कम अपेक्षित नहीं है। जिन मामलों को सामान्य नागरिक बोध से काफी हद तक सुलझाया जा सकता है, उनमें भी नागरिकों से जरूरी सहयोग नहीं मिल पाता। छिपी बात नहीं है कि दिल्ली और देश के दूसरे महानगरों में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की बड़ी वजह सड़कों पर वाहनों की बढ़ती संख्या है। पेट्रोल और सीएनजी चालित वाहनों की अपेक्षा डीजल चालित वाहनों का धुआं अधिक प्रदूषण फैलाता है। सब जानते हैं कि वाहनों के धुएं में शामिल सीसा और आर्सेनिक जैसे खतरनाक रासायनिक तत्त्व सांस के जरिए शरीर में पहुंच कर लोगों में गंभीर बीमारियों को जन्म देते हैं। पर इससे पार पाने में सहयोग की भावना कम ही देखी जाती है। सार्वजनिक वाहनों के उपयोग और निजी वाहनों के साझा इस्तेमाल की आदत ठीक से विकसित नहीं हो पाई है। ऐसे में सरकारों को वाहनों की खरीद-बिक्री से संबंधित कोई व्यावहारिक नीति बनाने और कड़े कदम उठाने की सलाह भी दी जाती रही है। अब जब यह समस्या विदेशी क्रिकेट खिलाड़ियों के मार्फत देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदगी का बायस बन गई है, सरकारों और नागरिकों से इसके व्यावहारिक हल की तरफ कदम बढ़ाने की अपेक्षा भी बढ़ी है।

 

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