फरेब रचता सूचना तंत्र

पदेश शब्द में कर्ता के ओहदे के अनुसार अनुदेश, निर्देश, आदेश लक्षित होते रहते हैं। इन आचरणों से समाज को दिग्दर्शन देने वाली चार श्रेणियां हैं- संत, शिक्षक, शासक, राजनीतिज्ञ। व्यापारी इनके पोषक हैं, और संचार-तंत्र प्रचारक। यही छहों समाज के संचालक हैं। बाकी बचे लोग जनता, यानी उक्त छहों के हाथों की कठपुतली। हमारे देश में दिग्दर्शकों के सारे उपदेश/ निर्देश हम पर विज्ञापन द्वारा लागू होते हैं; जिसे हमारी संस्कृति की परवाह नहीं है। नई पीढ़ी की भाषिक संवेदना और चिंतन-प्रक्रिया को तो पहले ही कुंद कर लिया; अब संस्कृति पर सीधा हमला जारी है। संस्कृति एक अमूर्त भाव और विचार-शृंखला है, जीवन जीने की एक विधि है; जो हमें सामाजिक उत्तराधिकार में प्राप्त होती है। इसके आधार पर मनुष्य सोचता-समझता है, आंतरिक विवेक, नैतिक उन्नति, पारंपरिक सद््व्यवहार, और एक-दूसरे को समझने की शक्ति प्राप्त करता है। इससे जन और समुदाय की निजता और राष्ट्रीयता की पहचान होती है। हर क्षेत्र के साहित्य, संगीत, कला, धर्म, दर्शन, विज्ञान, रीति-रिवाज, परंपरा, तीज-त्योहार, जीवन-शैली… आदि में संस्कृति के पक्ष प्रकट होते हैं। सदा विकासोन्मुखी रहने और मनुष्य को सहज जीवन की प्रेरणा देने के बावजूद यह मनुष्य को स्वेच्छाचार से बरजती है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर रोम और यूनान के बाद भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन है। इसका संवर्द्धन-अनुरक्षण हर नागरिक का राष्ट्रीय दायित्व होना चाहिए। पर आज के दिग्दर्शकों की अनंत लिप्सा ने संस्कृति की मौलिकता में सेंध मारना शुरू कर दिया है।

सर्वविदित है कि बलि-प्रथा के हिमायती भी मादा-पशु की बलि नहीं देते; क्योंकि वह सृष्टि का आधार है। भारत में प्रकृति और पशु पूजन की प्रथा भी एक संस्कृति है, जिसमें सभ्यता-संवर्द्धन के सहायक घटकों के प्रति कृतज्ञताबोध लक्षित है। मगर, विज्ञापन के देवताओं को संस्कृति की इस गरिमा की चिंता नहीं है। उन्हें महत्तम धनार्जन के सिवा कुछ नहीं दिखता। धनार्जन की इसी लिप्सा में हमारे उन्नायक (आइकॉन) सारी नैतिकता भूल कर उद्योगपतियों के उत्पाद बेचने में लगे हुए हैं। संस्कृति रसातल में चली जाए, उनकी बला से! उन्हें तो मोटी रकम चाहिए। चमक-दमक के साथ वे परदे पर आकर बताते हैं कि घर की फर्श खास तरह से चिकनी करने, खास रेजर से दाढ़ी बनाने, खास तरह का चॉकलेट खाने, खास तरह का इत्र लगाने, खास वाहन खरीदने से जीवन में आनंद ही आनंद रहता है। उन्हें यह चिंता कभी नहीं होती कि ऐसे विज्ञापनों से कच्चे ज्ञान के किशोर राह भटक सकते हैं; या कि भौतिकता के प्रति ऐसा सम्मोहन दिखाना संपूर्ण नारी जाति का अपमान है! इतिहास के किसी खंड में मानवीय संवेदनाओं के दोहन का ऐसा कुत्सित आचरण दंतकथा के उस बूढ़े बाघ ने भी नहीं किया, जिसने गरीब बटोही को सोने का कंगन दिखा कर, निकट बुलाया और खा गया। कोई मां-नानी के स्नेह की दुहाई देकर आटा बेच रहा है, कोई फौजियों के बलिदान के सहारे फर्श की टाइल बेच रहा है, कोई देश को तनावमुक्त करने के लिए तेल बेच रहा है, कोई दर्दहरण मलहम बेच रहा है, कोई शरीर पर चर्बी घटाने-बढ़ाने का नुस्खा बेच रहा है, कोई लड़कियों को गोरी और मुलायम त्वचा की मलिका बनाने के लिए कॉस्मेटिक्स बेच रहा है, बेशकीमती परिधानों से सजना-संवरना सिखा रहे हैं। अजीब स्थिति है, इन्हें दया तक नहीं आती कि इन झूठी घोषणाओं से ये जिन सम्मोहित जनता को बरगला कर उद्योगपतियों का खजाना भर रहे हैं; उसी जनता ने इन्हें उन्नायक की हैसियत दी है। इस कृतघ्नता तक पहुंचते हुए ये तनिक नहीं सोचते कि कच्ची समझ के असंख्य लोग इन भौतिकताओं की पूर्ति हेतु अवांछित आचरण की ओर अग्रसर हो रहे हैं!

संवेदनाओं को कुरेद कर, भ्रामक सूचनाएं देकर, विज्ञापनों में ये जिस तरह ठगी करते हैं, वह हमारी संस्कृति के साथ दुर्व्यवहार है। देश की सीमा पर दुश्मनों से लड़ते हुए, रात-दिन जागते हुए, जो सिपाही हमें सोने का अवसर देता है; अपनी जान गंवा कर हमारी रक्षा करता है, उनके बलिदान का दुरुपयोग अपराध है। ऐसे असंख्य दुर्व्यवहार और अपराध के लिए इनसे हिसाब मांगा जाना चाहिए। हिसाब नहीं मांगा जाता, इसलिए ये ऐसे फरेब को बढ़ावा दे रहे हैं। विज्ञापन का अभिप्राय ‘सूचना’ या ‘जानकारी’ देना होना चाहिए; ‘फरेब’ या ‘धोखाधड़ी’ नहीं। पर आज का विज्ञापन पूरी तरह फरेब है। उद्योगपति समझ गए हैं कि जनसाधारण, अपने उन्नायकों पर विश्वास करता है; जिहाजा वे ऐसे नायकों को मोटी रकम देकर खरीदते हैं, फिर उनसे अनाप-सनाप कहवा लेते हैं। जनता मान जाती है, क्योंकि वह अपने उस नायक के प्रति सम्मोहित है, उसकी बातों पर विश्वास करती है। उद्योगपतियों, संवाद-लेखकों और मॉडलों के फरेब का ऐसा संयुक्त व्यापार कब तक चलेगा!
तथ्यत: इनके सारे कथन झूठे होते हैं। प्यूरीफाइड पानी से पौधों की सिंचाई करने पर उनका बेहतर विकास हो; खास दंतमंजन से मुंह धोने या खास टॉफी खाने से लोग उन्मादी और बेसुरे होकर नाचने लगें; ऐसा एक भी उदाहरण, दुनिया के किसी कोने में नहीं मिलेगा! पर विज्ञापन-बाजार के ये देवता-जन ऐसा प्रमाण देते हैं। शिशु-चिंता इस देश के मांओं की बुनियादी चिंता होती है; अक्सर मांएं अपने बच्चों की सेहत और सुरक्षा के लिए चिंतित रहती हैं; उनकी इस चिंता को वे इस तरह भयकारी बना देते हैं, कि मांओं को विश्वास करना पड़ता है कि इनके उत्पाद की खरीद के बिना कोई चारा नहीं है। देश के नागरिकों को इस तरह मुग्ध और बेबस बनाते हुए, हमारे इन उन्नायकों को कभी यह भी सोचना चाहिए कि श्रेष्ठ-जनों के कथनों पर विश्वास करना भारत देश की संस्कृति है। उद्योगपति इस संस्कृति का दोहन करने हेतु उन्हें खरीदते हैं; और उन्हें अपने प्रशंसकों को ठगने हेतु मजबूर करते हैं। असल में वे बिके हुए हैं, इसलिए वे संस्कृति की गरिमा को खंडित कर रहे हैं। पर, संस्कृति ही नहीं रहेगी, तो वे कहां रहेंगे!

दिग्दर्शक वर्ग- संत, शिक्षक, शासक, राजनेता, व्यापारी, संचारकर्मी-राष्ट्रीय संस्कृति की गरिमा को अब भी समझ लें, तो उनके उन्नायक बने रहने की संभावना बची रहेगी। क्योंकि अब जनसाधारण का मोहभंग होने लगा है; वे व्यवस्था के संचालकों की रणनीति भांपने लगे हैं। वे जानने लगे हैं कि कानून और अनाज-पानी के इन देवताओं को जन, जनपद, जनपदीय संस्कृति की कोई चिंता नहीं है। जनता दुखी है कि इतिहास-काल में बार-बार आततायी आक्रमण झेल कर भी जिस भारत ने अपनी संस्कृति सुरक्षित रखी; अपनी निजता पर कभी आंच नहीं आने दी; उस भारत के लोकतंत्र में यह निजता मुट्ठी के रेत की तरह क्यों खिसकती जा रही है। दिग्दर्शक कोटि की उक्त छहों कोटियां आजादी-पूर्व के दिनों में भी थीं; पर जनता उनके हाथों की कठपुतली नहीं थी। वे निजी जीवन में भी जनता के सपने देखते थे। उन्हें जन-अभिलाषा, जन की निजता और राष्ट्रीय संस्कृति की फिक्र थी! गतिशीलता, उन्नति और आधुनिकता का आग्रह उन्हें भी था, पर ऊंचा चढ़ने के उत्साह में उन्होंने अपनी मौलिकता नहीं भूली। कामना के अतिरेक से विवेक मिटता है, चेतना सो जाती है, फिर तो लिप्सा ही लिप्सा रह जाती है। हमें अपने पूर्वजों के जीवन-क्रम से यह सीख लेनी चाहिए कि उपदेशक समाज को सही रास्ता दिखाता है, अपनी झोली भरने के लिए जनसाधारण को बरगलाता नहीं। ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, भीमराव आंबेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे पूर्वजों ने हमें ऐसी विरासत दी है कि हम जैविक लिप्सा त्याग कर सामुदायिक हित, नागरिक निजता और राष्ट्रीय संस्कृति के संपोषण में तल्लीन हो सकते हैं और निजता का यह संपोषण अंतत: हमारा निजी संपोषण भी होगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *