भुखमरी का कलंक

वह बहुत अफसोसनाक है कि एक ऐसी समस्या की तरफ ध्यान खींचने के लिए अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति संस्थान (इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट- आइएफपीआरआइ) द्वारा एक रिपोर्ट के प्रकाशन की जरूरत पड़ती है, जो भारत में सदियों से मौजूद रही है और सभी विकासशील देशों में महामारी जैसी है- वह है भुखमरी। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत की आबादी के एक खासे हिस्से को साल में अनेक दिन भूखे रहना पड़ता है। सरकार को इस दुखद तथ्य को क्यों झुठलाना चाहिए, अगर उसने असुविधाजनक सच्चाई से मुंह मोड़ लेने की आदत विकसित न कर ली हो?
आइएफपीआरआइ द्वारा जारी किए गए आंकड़ों में कुछ रहस्य नहीं है (देखें तालिका)।
हर साल कुछ देश इस सूची में जुड़ जाते हैं और कुछ नदारद हो जाते हैं, संभवत: आंकड़े उपलब्ध होने या न उपलब्ध होने के कारण। जैसा कि तालिका से भी जाहिर है, इसका प्रस्तुत मसले से कोई सीधा संबंध नहीं है- ग्यारह वर्षों के दौरान अध्ययन में शामिल किए गए देशों की संख्या 117 से 122 के बीच रही है, जिसका सांख्यिकीय दृष्टि से बहुत महत्त्व नहीं है। इस तालिका से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं?
* तुलनात्मक रूप से इन देशों के बीच भारत की स्थिति 2008 से 2011 के बीच और खराब होती गई, पर उसे मिले अंक कमोबेश वही रहे;
* तुलनात्मक रूप से, 2011 और 2014 के बीच, भारत की स्थिति और उसे मिले अंक में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ; और
* भारत के अंक या स्थान में 2014 से उल्लेखनीय गिरावट आई।

अच्छा और बुरा
जो सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए, वह यह है कि 2014 तक सुधार का जो रुझान था उसे भारत कायम क्यों नहीं रख सका?
1947 से हर सरकार को, अच्छे और बुरे, दोनों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए, और यही बात वर्तमान सरकार पर भी लागू होती है। वैश्विक भूख सचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) इस हिसाब पर आधारित है कि संबंधित देश की आबादी में किस अनुपात में ऐसे लोग हैं जिन्हें भरपेट भोजन मयस्सर नहीं होता; पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में क्षय तथा अवरुद्ध विकास के लक्षण किस पैमाने पर हैं; और पांच वर्ष से कम आयुवर्ग में मृत्यु दर कितनी है। इन कसौटियों पर प्रगति हुई है। इस स्तंभ को आंकड़ों से बोझिल करने की जरूरत नहीं है। 2006 से 2016 की अवधि के बारे में हुआ अध्ययन बताता है कि अवरुद्ध विकास के लक्षणों वाले बच्चों के अनुपात में कमी आई है, प्रजनन के आयुवर्ग की स्त्रियों में खून की कमी की शिकार स्त्रियों के अनुपात में और जन्म के समय अपेक्षा से कम वजन वाले बच्चों के अनुपात में भी कमी आई है; सिर्फ मां के दूध पर निर्भर रहने वाले नवजात शिशुओं के अनुपात में सुधार हुआ है; पर बच्चों में क्षय के लिहाज से हालत और खराब हुई है। भारत का कोई भी राज्य 2016 में क्षय या कम वजन के उस स्वीकार्य स्तर तक नहीं पहुंच सका, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लोक स्वास्थ्य के मद््देनजर निर्धारित किया हुआ है।
सुधार और बिगाड़, दोनों का कारण है खाद्य- इसकी उपलब्धता, इसे खरीद सकने की क्षमता और इसकी पहुंच। लोगों को पर्याप्त भोजन मिलना ही चाहिए, अन्य किसी भी चीज का स्थान इसके बाद आता है। एक बड़ा विरोधाभास यह है कि भारत अपने लोगों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उगाता है, पर सभी लोगों को पर्याप्त आहार नहीं मिल पाता है। सबको खाद्यान्न मुहैया कराने के लिए अनेक कदम उठाए- कुछ को थोड़ी-बहुत कामयाबी भी मिली- इनमें सबसे निर्णायक कदम था राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट- एनएफएसए), 2013 का पारित होना।

 एनएफएसए का वादा
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम ने हर महीने सबसिडी वाली कीमतों पर अनाज पाने की ‘पात्रताएं’ घोषित कीं। ‘प्राथमिकता वाले परिवार’ के हर सदस्य को पांच किलो; ‘अंत्योदय’ के तहत आने वाले हर परिवार को पैंतीस किलो; हर गर्भवती महिला या हर दूध पिलाने वाली मां को गर्भावस्था के दौरान और बच्चे के जन्म के बाद छह माह तक रोजाना मुफ्त भोजन और छह हजार रुपए; छह साल से कम आयु के हर बच्चे को रोजाना मुफ्त भोजन; छह से चौदह साल के हर बच्चे को मुफ्त दोपहर का भोजन (मिड-डे मील), और अनाज की आपूर्ति न किए जाने या भोजन न दिए जाने की सूरत में खाद्य सुरक्षा भत्ता। अगर आवश्यक लगे तो ग्रामीण आबादी के पचहत्तर फीसद तक और शहरी आबादी के पचास फीसद तक को इसके दायरे में लाने का इरादा था। हर राज्य में एक ‘राज्य आयोग’ को क्रियान्वयन की देखरेख करनी थी।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम एक साहसिक, महत्त्वाकांक्षी और जाहिर है एक काफी लागत वाला कदम था। इस पर कई तरफ से एतराज जताए गए, पर इसका एक ही विकल्प था- यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ), जो कि और भी खर्चीला साबित होता।

घोर अनदेखी
2014 में सरकार बदल जाने पर कानून पर अमल की जिम्मेदारी राजग पर आ गई। पर उसने इससे मुंह मोड़ लिया। मुझे याद नहीं पड़ता कि प्रधानमंत्री ने कभी खाद्य सुरक्षा को एक मिशन घोषित किया हो (जैसे कि उन्होंने ‘स्वच्छ भारत’ को किया), न ही सरकार ने कोई विकल्प प्रस्तावित किया। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की घोर अनदेखी की गई। जुलाई, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अनेक राज्यों में अमल के प्रभार वाली संस्थाओं का गठन ही नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘बड़ी शोचनीय स्थिति’ कहा। बजट-दस्तावेजों के मुताबिक, सरकार ने एनएफएसए के तहत 2015-16 में 1,34,919 करोड़ रु. खर्च किए। 2016-17 में यह आंकड़ा 1,30,335 करोड़ रु. (बजट अनुमान) और 1,30,673 करोड़ रु. (संशोधित अनुमान) था, पर वास्तविक व्यय हुआ सिर्फ 1,05,672 करोड़ रु., जैसा कि मई 2017 में बताया गया। यह निर्मम उपेक्षा थी और इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।
‘खाद्य सुरक्षा की स्थिति और पोषण रिपोर्ट’ (यूनिसेफ, 2017) बताती है कि भारत में उन्नीस करोड़ लोग अधपेट सोने को विवश हैं। जब राष्ट्रीय खाद्य नीति संस्थान ने हमें आईना दिखाया, तो क्या हमें सच्चाई से इनकार करना चाहिए! भुखमरी भारत के माथे पर एक कलंक है। मौजूदा सरकार का यह कर्तव्य है- जो कि बुलेट ट्रेन के वादे या सबसे ऊंची प्रतिमा या किसी अन्य ‘जुमले’ से ज्यादा महत्त्व रखता है- कि वह भुखमरी मिटाने की एक व्यापक योजना पेश करे और उसे लागू करे।

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