स्मार्टफोन की लत किशोरों और युवाओं में बढ़ा रहा अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसआॅर्डर

किशोर उम्र के बच्चे जितने ज्यादा वक्त फोन से चिपके रहते हैं, उनके मस्तिष्क पर इसका उतना ही बुरा असर पड़ता है। इस आदत के कारण किशोरों में अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसआॅर्डर (एडीएचडी) के लक्षण पैदा हो सकते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति किसी भी चीज पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है। अगर वक्त रहते हम सतर्क नहीं हुए तो अनुमान है कि दस साल में यह समस्या महामारी का रूप ले लेगी। इनमें से कुछ बीमारियां ब्लैकबेरी थम्ब, सेलफोन एल्बो, नोमोफोबिया और रिंगजाइटी नाम से जानी जाती हैं।

जामा नामक पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया शोध के मुताबिक, डिजिटल मीडिया का उपयोग करने वालों में एडीएचडी का लक्षण लगभग 10 फीसद ज्यादा होने का खतरा होता है। लड़कियों के मुकाबले लड़कों में यह जोखिम ज्यादा था और उन किशोरों में भी खतरा ज्यादा दिखा जिन्हें पहले कभी अवसाद रह चुका है। एडीएचडी स्मार्टफोन की लत के कई नतीजों में से एक है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक, सोशल मीडिया अवकाश और इलेक्ट्रॉनिक कर्फ्यू जरूरी है और इस बदलाव की शुरुआत वयस्कों को करनी चाहिए, तभी बच्चों से इस पर अमल कराया जा सकता है।

अध्ययन के मुताबिक, एडीएचडी के कारण स्कूल में खराब प्रदर्शन सहित किशोरों पर कई अन्य नकारात्मक प्रभाव होते हैं। इससे जोखिम भरी गतिविधियों में दिलचस्पी, नशाखोरी और कानूनी समस्याओं में बढ़ोतरी हो सकती है। हार्ट केयर फाउंडेशन आॅफ इंडिया (एचसीएफआइ) के अध्यक्ष डॉ केके अग्रवाल ने कहा कि स्मार्टफोन की बढ़ती लोकप्रियता के साथ युवाओं में फेसबुक, इंटरनेट, ट्विटर और ऐसे अन्य एप्लीकेशन में से एक न एक का आदी होने की प्रवृत्ति आम है। इससे अनिद्रा और नींद टूटने जैसी समस्याएं हो सकती हैं। करीब 30 फीसद मामलों में स्मार्टफोन माता-पिता और बच्चे के बीच संघर्ष का कारण बनता है। इसके कारण अक्सर बच्चे देर से सोते और देर से उठते हैं। स्कूल जाने के लिए भी तैयार नहीं होते हैं। लोग सोने से पहले स्मार्टफोन के साथ औसतन 30 से 60 मिनट बिताते हैं। अनुमान है कि इससे आने वाले समय में कई बीमारियां महामारी के रूप में सामने होंगी। अनिद्रा और नींद टूटने जैसी समस्याएं आम हो सकती हैं। एडीएचडी के सबसे आम लक्षणों में ध्यान न दे पाना (आसानी से विचलित होना, व्यवस्थित होने में कठिनाई होना या चीजों को याद रखने में कठिनाई होना), अति सक्रियता (शांत होकर बैठने में कठिनाई) और अचानक से कुछ कर बैठना (संभावित नतीजों को सोचे बिना निर्णय लेना) है।

डॉ नीरज अग्रवाल ने कहा कि गैजेट जरिए मिली जानकारी से मस्तिष्क के ग्रे मैटर के घनत्व में कमी आई है, जो संज्ञान के लिए जिम्मेदार है और भावनात्मक नियंत्रण रखता है। इस डिजिटल युग में अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी है पूर्ण संयम, यानी प्रौद्योगिकी का हल्का-फुल्का उपयोग होना चाहिए। हममें से ज्यादातर लोग ऐसे उपकरणों के गुलाम बन गए हैं जो असल में हमें मुक्त करने के लिए बने थे, हमें जीवन का अनुभव कराने और लोगों के साथ अधिक समय बिताने देने के लिए बनाए गए थे। हम अपने बच्चों को भी उसी रास्ते पर ले जा रहे हैं।

यूं हो सकता है बचाव
– इलेक्ट्रॉनिक कर्फ्यू यानी सोने से 30 मिनट पहले किसी भी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट का इस्तेमाल नहीं करना।
– फेसबुक अवकाश यानी हर तीन महीने में सात दिन के लिए फेसबुक न देखें।
– हफ्ते में एक बार सोशल मीडिया उपवास करें यानी उस पूरे दिन के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल से बचें।
– मोबाइल फोन का उपयोग केवल फोन पर बात करने के लिए करें।
– दिन में तीन घंटे से अधिक समय तक कंप्यूटर का उपयोग न करें।
– मोबाइल पर बात करने के समय को दिन में दो घंटे तक सीमित करें।
– दिन में एक से अधिक बार अपने मोबाइल की बैटरी चार्ज न करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *